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________________ २३६] (जैनधर्म-मीमांसा मुनि-संस्था के और भी छोटे छोटे नियम है, परन्तु मुनिसंस्था के रूप में जो यह क्रान्ति की गई है-उससे उनके विषय में वयं ही विचार हो जाता है, इसलिये उनके विषय में विचार करने की ज़रूरत नहीं है । वर्तमान में जो मूलगुण प्रचलित है, परीक्षा करने के बाद साधु-संस्था के लिये जिन मूलगुणों की आव. श्यकता रह जाती है, वे ये हैं १-समभाव, २-ज्ञानयुक्तता, ३-अहिंसा, ४-सत्य, ५- अचौर्य, ६-ब्रह्मचर्य, ७-अपरिग्रह, ८-इंद्रिय-विजय, ९-प्रतिक्रमण, १०-कर्मण्पता, ११-कष्टसहिष्णुता । वर्तमान में इन मूलगुणों की आवश्यकता है और इनमें सभी आवश्यक बातों का संग्रह और स्पष्टीकरण हो जाता है । इनमें से प्रारम्भ के नौ गुणों की आलोचना तो सत्ताईस और अट्ठाईस मूलगुणों की आलोचना करते समय कर दी गई है। बाकी दो मूलगुण और रह जाते हैं, उनकी संक्षिप्त आलोचना यहाँ कर दी जाती है। कमण्यता-साधु को जीवन-निवाई के लिये या उसके बदले में कुछ न कुछ सेवा अवश्य करना चाहिये । निवृत्ति की दुहाई देकर प्रवृत्ति को निन्दा करके चुपचाप पड़े रहने का नाम धर्म नहीं है । हाँ, यह बात अवश्य है कि सेवा अपनी अपनी योग्यता तथा समाज की आवश्यकता के अनुसार होगी। कोई कलाकार है तो उसको अपनी कला से सेवा करना चाहिये, कोई विद्वान है तो वह विद्या देकर सेवा करे, अथवा भगर कोई. वृद्ध है तो उसको बहुत-सी रियायत दी जा सकती है। हाँ, इतनी
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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