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________________ [ २३५ फिर भी साधु-संस्था में साधारणतः रात्रि भोजन की मनाई मुनिसंस्था के नियम ] रहे, परन्तु निम्नलिखित अपवाद रहें: -- १ - बीमारी के कारण रात्रि में औषध लेना । २- पानी पीना या आवश्यकतावश फलाहार करना । ३ - प्रवास या किसी सेवा कार्य के कारण अगर दिन में मौका न मिला हो, और रात्रि में फलाहार वगैरह की सुविधा न हो तो भोजन करना | मतलब यह कि साधारणतः दिन में भोजन करने का नियम रखना चाहिये और किसी ख़ास ज़रूरत पर रात्रि-भोजन करना चाहिये । शीत-प्रधान देशों के लिये तथा जहाँ पर लम्बी लम्बी रात्रियाँ होती है, वहाँ के लिये रात्रि - भोजन त्याग का नियम इतना भी नहीं बनाया जा सकता । शङ्का - भोजन न करके फलाहार करना तो और भी अनुचित है, क्योंकि इसमें खर्च बढ़ता है । इसकी अपेक्षा सूवे चने खा लेना अच्छा है । समाधान - निःसन्देह सूखे चने खाने में और फलाहार में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु चना खाकर 'चने की रोटी' भी खाई जाने लगती है; इसके बीच में मर्यादा बाँधना मुश्किल है । अन्न और फल के बीच मर्यादा बँधी जा सकती है । फलाहार से अच्छी तरह पेट नहीं भरता, तथा अन्न भोजन की तरह यह प्रतिदिन सुलभ भी नहीं है, इसलिये रात्रि - भोजन के अपवाद में फलाहार रखने से रात्रि-भोजन की प्रणाली निरर्गल रूप में नहीं चल सकती ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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