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________________ २२८] [जैनधर्म-मीमांसा हो, वहाँ बितनी शिक्षा से किसी स्त्री को विदुषी कहा जा सकता है, उतनी ही शिक्षा से किसी को विद्वान नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जंगली जातियों में या पिछड़ी हुई जातियों में जितने शिक्षण से कोई विद्वान कहलाता है उतने से शिक्षण में समुन्नत जाति या देश में कोई विद्वान नहीं कहला सकता । ज्ञानयुक्तता का अर्थ करते समय यह दृष्टि-बिन्दु. ध्यान में रखना चाहिये । मतलब यह है कि साधु-संस्था में ऐसे अयोग्य आदमी न आ जाना चाहिये जिनके ज्ञान की योग्यता साधु-संस्था के कर्तव्य का बोझ न उठा सकती हो । आवश्यकता होने पर उसे उम्मेदवार के तौर पर रख सकते हैं । साधु-संस्था को कोई खास सहायता की आशा हो और कोई प्रभावशाली आदमी प्रवेश करना चाहता हो और इस नियम के अपवाद की आवश्यकता हो तो अपवाद भी किया जा सकता है। दर्शनयुकता-भी मूलगुण में रखने योग्य है; क्योंकि सम्यदर्शन के बिना सम्यकचारित्र नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन का विस्तृत विवेचन पहिले किया गया है। परन्तु यहाँ पर जिस अंश पर जोर देना है, वह है समभावं । साधु को समभावी अर्थात् सर्व-धर्म-समभावी होना चाहिये । साम्प्रदायिक पक्षपात न हो, अथा उसे सत्य का ही पक्ष हो, किसी सम्पदाय विशेष का नहीं। साधु अर्थात जिसे विश्वमात्र की सेवा की साधना करना है, वह समभावी हो-यह आवश्यक है। प्रश्न-जिन सम्प्रदायों में अहिंसा सदाचार आदि का मल्य
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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