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________________ मुनिसंस्था के नियम [२२७ किया है उनमें इसका समावेश हो जाता है । समितियों को मैंने मूल-गुण में नहीं रखा है, इसलिये यह भी मुल-गुण में शामिल न कहलाया । योग-सत्य अर्थात् मन-वचन-कार्य की सचाई । यह भी एसा - मलगुण है जो किसी विशेषता की तरफ संकेत नहीं करता, अथवा माया-कपाय के त्याग में इसका समावेश हो जाता है । क्षमा को अलग स्थान दना मी ठीक नहीं है । यह ता क्रोध-व्याग में आ जाता है । यद्यपि इन दोनों में भेद बतलाने की कोशिश की गई है कि काध को पैदा न होने देना क्षमा है और पैदा हुए क्रोध को रोक दना- प्राध-विवेक है। परन्तु इस प्रकार के सूक्ष्म अन्नर की कल्पना करक, तथा क्षमा की व्यख्या को संकुचित करके मरगुणों की मरूपा बढ़ाना ठीक नहीं है। इसी प्रकार का मूल अन्तर अन्य मूलगुणों में भी बताया जा सकता है, परन्तु वा निरर्थक क्लिट कल्पना है । ज्ञानयुक्तता-को अवश्य हो मुन्द्रगुण में स्थान दिया जा सकता है, क्योंकि बिना ज्ञान के समाज-सेवा नहीं की जा सकती। साधु-संस्था में बहुत से मूढ़ अक्षर-शत्र घुस जाते हैं, इसलिये ज्ञानयुक्तता को अवश्य ही मूलगुणों में रखना चाहिये। ज्ञानयुक्तता का यह अर्थ नहीं है कि संस्कृत, प्राकृत, इंग्लिश, अरबी, फारसी का जानकार हो जाय, या किसी विषय का जीता जागता शब्दकोष या पद्य-कोष बन जाय; किन्तु जिसमें समझदारी हो, विवेक हो, कर्तव्याकर्तव्य का दूसरों को भान करा सकता हो-वह ज्ञानयुक्त है । इस विषय का माध्यम देशकाल के अनुसार बदलता रहेगा । जहाँ स्त्री-शिक्षा का कम प्रचार
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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