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________________ २०६ ] [जैनधर्म-मीमांसा चाहिये, न हो तो न सही । हाँ, साधुओं का कोई आश्रम बनाया जाय और उसमें इस प्रकार की प्रार्थना रक्खी जाय तो कोई हानि नहीं है, परन्तु उसमें सिर्फ महात्मस्तव ही न होगा; किन्तु सत्य अहिंसा आदि गुणों का स्तव भी होगा । फिर भी इस प्रार्थना को अनिवार्य नियम का रूप नहीं दिया जा सकता; क्योंकि साधुता के साथ इसका घनिष्ट सम्बन्ध नहीं है । T करना, अपने से जो पूज्य हो समावेश होता है । महात्नस्तव तीसरा आवश्यक वन्दना है । इसमें मूर्ति के आगे प्रणाम उनको नमस्कार करना आदि का वचन रूप पड़ता है, और यह शरीर की क्रिया रूप पड़ता है; परन्तु इन दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है । ऐसे छोटे छोटे अन्तर निकालकर मूल-गुणों की संख्या बढ़ाना उचित नहीं है । 1 दूसरी बात यह हैं कि जिस प्रकार महात्मस्तव को मूल-गुणों में शामिल नहीं किया है, उसी प्रकार यह बन्दना भी मूल-गुण में शामिल नहीं किया जा सकता । हाँ, इसका करना बुरा नहीं है, बल्कि उचित है । शरीर से पश्चाताप चौथा आवश्यक प्रतिक्रमण है । इसका अर्थ है अपरात्रशुद्धि | हम से जान में या अनजान में जो दोष हो गये हों उसे वापिस लौटना अर्थात् मन से, वचन से, करना प्रतिक्रमण है । सचमुच यह आवश्यक ही है । यद्यपि इसका पूर्ण रूप में पालन करना कठिन है, फिर भी इसको पूर्ण रूप में पालन करने की यथाशक्ति चेष्टा करना चाहिये । नहीं, अत्यावश्यक
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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