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________________ सुनिसंस्था के नियम ] मूल- गुण में रखना आवश्यक है । यद्यपि यह समभाव सम्यग्दर्शन में ही आवश्यक है, इसलिये यह जैनत्व की मुख्य शर्त है तथापि इस विषय में इतनी ग़लतफ़हमी है और इसकी तरफ़ लोगों की इतनी उपेक्षा है कि इसकी तरफ़ जितना अधिक ध्यान आकर्षित कराया जाय उतना ही थोड़ा है । सर्वधर्म समभाव रूप समता प्रत्येक श्रावक को आवश्यक है, परन्तु जो साधु-संस्था में जुड़ रहा है उसे तो और मी अधिक आवश्यक है - इसलिये मूल-गुणों की नामावली में इसका नाम सब से पहिले रखना चाहिये । जिस प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र की उत्पत्ति और स्थिति नहीं मानी जाती उसी प्रकार प्रकार इस सर्व-धर्म-समभाव के बिना साधुता नहीं हो सकती | [२०५ दूसरा आवश्यक चतुर्विंशस्तव है । महापुरुषों की स्तुति करना, उनका गुणगान करना उचित है । परन्तु यह गुण-गान किसी सम्प्रदाय के महापुरुषों में कैद न रहना चाहिये, और न उसमें चौबीस की संख्या नियत रहना चाहिये । अपनी अपनी रुचि और परिस्थिति के अनुसार महापुरुषों की प्रशंसा करना उचित है, फिर वह एक की की जाय या दस की । इसलिये इस आवश्यक का नाम चतुर्विंशतिस्तव नहीं, किन्तु महात्मस्तव रखना चाहिये । इस प्रकार यह महात्मस्तव उचित होने पर भी मूल-गुण में नहीं रक्खा जा सकता; क्योंकि साधु-संस्था के लिये यह आवश्यक नियम नहीं है । अवकाश और इच्छा होने पर उनकी स्तुति करना
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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