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________________ २००] [जैनधर्म-मीमांसा इस प्रकार ये पाँच समितियाँ उपादेय होने पर भी मलगुण में शामिल नहीं की जा सकती । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी इन्हें मूल-गुण में शामिल नहीं किया गया है । इन्द्रियनिग्रह-स्पर्शन, जिव्हा, नाक, नेत्र और कान ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । इन पर विजय प्राप्त करना या इनका दमन करना भी साधु के मूल-गुण है । ये पाँच मूल-गुण दोनों सम्प्रदायों में माने गये हैं। इन्द्रियों के दमन करने का यह अर्थ नहीं है कि कोई व्यक्ति कोमल खच्छ वस्तु का स्पर्श न करे, स्वादिष्ट भोजन न करे, सुगन्धित स्थान में न जावे, सुन्दर दृश्य न देखे, संगीत न सुने आदि; किन्तु इसका अर्थ सिर्फ आसक्ति का अभाव है । इन्द्रयों के विषय में उसे इतना आसक्त न होना चाहिये कि वह कर्तव्य करने में प्रमादी हो जावे, अथवा दूसरों के न्यायोचित आधकारों की पर्वाह न करे। साधु को चाहिये कि वह इन्द्रियों के अनिष्ट विषय प्राप्त होने पर भी अपने को स्थिर रखे । किसी के यहाँ जाने पर यदि रूखा-सूखा भोजन मिले तो भोजनदाता का मन से, वचन से, शरीर से तिरस्कार न करे । यदि घर के आदमी ने कुछ भोजन में गड़. बड़ी कर दी है तो सुधार के लिये प्रेमपूर्वक समझाने के सिवाय और कोई उग्र व्यवहार न करे । सदा संतोष और प्रसन्नता से भोजन करे । हाँ, जो भोजन अस्वास्थ्यकर है उसे चाहे न ले, अथवा जो इतना बेस्वाद है जिसे खाना कठिन है तो थोड़ा खावे, परन्तु इस के लिये किसी का अपमान न करे, किसी को दुःखी न करे ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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