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________________ ६] [ जैनधर्म-मीमांसा लोकन चारित्र व्यवहार छोड़कर नहीं रह सकता । उसका मूल्य, उसका रूप व्यवहार पर अवलम्बित है । व्यवहार बदलता रहेगा पर रहेगा अवश्य । व्यवहारशून्य चारित्र का कोई अर्थ नहीं । इसलिये प्रवृत्तिहीन चारित्र का कोई मतलब नहैं। होता । स्थितिप्रज्ञ, अर्हन्, तीर्थकर, केवली, जीवन्मुक्त आदि शब्दों से जिनका उल्लेख किया जाता है, वे सब व्यवहार के भीतर ही हैं, इसलिये उन्हें व्यवहारचारित्र का अर्थात् प्रवृत्तिन्य चारित्र का पालन करना ही पड़त! है। जबतक प्रवृत्ति है अर्थात् मनस, बचनसे या शरीरसे थोड़ी भी क्रिया हो रही है, तबतक चारित्र प्रवृत्तिमय है । इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय को छोड़कर शेष समग्र जीवन में चारित्र प्रवृत्तिमय रहता ही है। ___जबतक जीवन है, तभी तक चारित्र है, क्योंकि तभी तक प्रयत्न है । जीवन के अन्तिम समय में (चतुर्दश गुणस्थान में ) जो चारित्र या संयम कहा जाता है, उसका कारण यही है कि उस समय जीवन है, मन वचन काय को पूर्णरूप से रोक देने का भी प्रयत्न है । जिस समय जीवन नहीं रहता उस समय चारित्र नहीं माना जाता । यही कारण है कि मक्तात्माओं में संयम या चारित्र नहीं माना जाता । मुक्तात्माओं में सिद्धगति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और आनाहार को छोड़कर बाकी नव मार्गणाओं का अभाव माना गया है। उनमें संयममार्गणा भी एक है । मुक्तात्माओं में Aसिद्धाणं सिद्धगई केवलणाणं च दंसणं खइयं सम्मत्तमणाहारो उवजोगाणमकमपउत्ता । गुणजीवठाणरहिया सण्णापअत्तिपाणपरिहीणा । सेसणव मन्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति । गोम्मटसार जीवकांड ७३३ ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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