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________________ सम्यञ्चारित्र का रूप जीवन के अन्त तक प्रवृत्तिमय चारित्रवान् होते हैं। जीवन के अंतिम समय में कुछ क्षणों के लिये उनकी प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं । उस समय श्वास हृदय आदि की क्रियाएँ तक रुक जाती हैं । ऐसी अवस्था में दूसरी प्रवृत्ति तो हो ही कैसे सकती है ? योग निरोधरूप इस अवस्था में जो चारित्र की पूर्णता बतलाई गई है, उसका कारण यह है कि वह मोक्षमार्ग की पूर्णता है । जैसे--मार्ग को पूरा करने के लिये चलना आवश्यक है, किन्तु जबतक चलना है, तब तक मार्ग की पूर्णता नहीं कही जा सकती; उसी प्रकार कल्याण की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति आवश्यक है, परन्तु कल्याण की पूर्ण प्राप्ति हो जाने पर प्रवृत्ति को रुकना ही चाहिये । प्रत्येक प्रयत्न साध्य की सिद्धि हो जाने पर निश्चष्ट हो जाता है, तभी वह पूर्ण प्रयत्न कहलाता है । इसी प्रकार चारित्र भी जीवन के अन्तिम पलमें निश्चष्ट हो जाता है, और तभी वह पूर्ण कहलाता है। चरित्र की पूर्ण अवस्था में जो निश्चेष्टता पैदा होती है वह चारित्र के स्वरूप का नहीं है, किन्तु चारित्र की पूर्णता का फल है ।। प्रवृत्तिरूप चारित्र को जो कहीं कहीं व्यवहारचारित्र और निवृत्ति को निश्चय चारित्र कहा गया है उसका कारण वही है जो ऊपर निवृति की प्रधानता के विषय में कहा गया है । दूसरा कारण यह है कि व्यावहारिक रूप बदलता रहता है जैसा देशकाल वैसा उसका रूप । निवृत्ति अंश में प्रवृत्ति अंश की अपेक्षा परिवर्तनीयता कम है अथवा प्रवृत्ति की अपेक्षा ही निवृत्ति बदलती है इसलिये प्रवृत्ति के साथ व्यवहार का सम्बन्ध कुछ अधिक कहा जा सकता है।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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