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________________ १३४ ] कहना विचारणीय तो अवश्य है 1 [जैन-धर्म-मीमांसा 'परिग्रह पाप है ' - इस सिद्धान्त की छाप लोगों पर इतनी अवश्य बैठी है कि वे इस सिद्धान्त का मौखिक विरोध नहीं करते, परन्तु मन में और व्यवहार में इस सिद्धान्त पर जरा भी विश्वास नहीं रखते । इस विषमता का कारण क्या है, यह भी विचारणीय है । इस सिद्धान्त के विषय में यह भी एक प्रश्न है कि अब परिग्रह में हिंसा नहीं है, झूठ नहीं है, चोरी नहीं है अर्थात् यदि किसी ने ईमानदारी से धन पैदा किया है तो उसका संग्रह पाप क्यों है ? हाँ, अगर पैसा बेईमानी से, चोरी से या क्रूरता से पैदा किया गया है तो अवश्य पाप है । परन्तु उस समय उसे परिग्रह - पाप नहीं कह सकते वह तो हिंसा, झूठ या चौर्य पाप कहा जा सकता है । मतलब यह कि शुद्ध परिग्रह - ईमानदारी से एकत्रित किया हुआ धन - पाप कैसे कहा जा सकता है ? इन सब समस्याओं पर प्रकाश डालने के लिये हमें परिग्रह पर मूल से ही विचार करना पड़ेगा कि परिग्रह क्यों और कैसे आमा ? उससे जगत् की हानि क्या है ? परिग्रह किसे कहते हैं ? इसक भी अपवाद है या नहीं ? हैं तो क्या ? इत्यादि । जब मनुष्य वन्य-जीवन व्यतीत करता था, बन्दरों की तरह स्वतन्त्रता से विचरण करता था, प्राकृतिक फल-फूलों से अपनी सब आवश्यकताएँ पूरी कर लेता था; जैन- शात्रों के शब्दों में जब मनुष्य भोग-भूमि के युग में था, तब वह परिग्रही नहीं था । प्राकृतिक सम्पत्ति अधिक थी और मनुष्य संख्या तथा उस
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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