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________________ ब्रह्मचर्य [१२१ दोबारियों में कैद रहना पड़ता है, चूंघट आदि आवरणों में ढका रहना पड़ता है । इससे स्त्रियों का विकास रुक जाता है और उनकी सन्तान (खी और पुरुष) मनोबल आदिसे शून्य तया नीच प्रकृति की होती है । यदि स्त्रियों के विषय में मातृत्व आदि की भावना और पुरुषों के विषय में पितृत्व आदि की भावना हो तो इन अनयों से समाजका रक्षण होता है। इससे जीवन के विकास तथा निर्भयता, स्वतन्त्रता और विश्वास का अनंत आनन्द मिलता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य के दो प्रयोजन हैं । उनका विचार करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये । जिस प्रकार हिंसा आदि पापों के चार भेद किये गये हैं, उसी प्रकार मैथुन के भी चार भेद हैं-संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी। संकल्पी-व्यवहार में जिसे व्यभिचार कहते हैं, वह संकल्पी मैथुन है। पति या पत्नी की इच्छा न रहते हुए भी मैथुन करना संकल्पी मैथुन है । इसी प्रकार मर्यादा से अधिक [स्वास्थ्यनाशक] मैथुन भी संकल्पी मैथुन है । यद्यपि इनकी सांकल्पिकता में परस्पर अंतर है--सब से अधिक सांकल्पिकता व्यभिचार में हैफिर भी ये हिंसात्मक, दुःखप्रद और निवार्य होनेसे संकल्पी है। आरम्भी-सन्तानोत्पत्ति के लिये या शारीरिक उद्वेगों को शान्त करने के लिये जो मर्यादित मैथुन है, वह भारम्भी मैथुन है। दाम्पत्य जीवन में या नियोग की प्रथा में आरम्भी मैथुन होता है।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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