SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० १ [जैन-धर्म-मीमांसा इसी प्रकार स्त्री के विषय में भी कहा जासकता है । प्रेम की यह शिथिलता अविश्वासको पैदा करती है और इस प्रकार यह शिथिलता और अविश्वास कौटुम्बिक शान्तिको बर्बाद कर देते हैं; इतना ही नहीं किन्तु इनसे सभ्यसे सभ्य समाज भी असभ्य बन जाता है । दुतरफ़ / भोज्यभोजक भाव होनेसे यद्यपि स्त्री और पुरुष समानता बतलाई जाती है, फिर भी व्यक्तिगत रूप में तो दोनों ही अपने को भोजक समझते हैं और भोजन की दृष्टिमें तो भोज्य शिकार के तुल्य है । है । इसलिये अगर इनमें संयम की मात्रा न हो तो समाज अविश्वास और भय से इतना त्रस्त हो जाय कि उसे नरक ही कहना पड़े । स्त्रियाँ श्रृंगारसे, सौन्दर्यसे, छलसे, विश्वासघात से पुरुषों का शिकार करें और पुरुष भी पशुवल तथा छल आदि से स्त्रिया का शिकार करें | इसका फल यह हो कि स्त्रियों का घर से निकलना भी मुश्किल हो जाय, और पुरुषों को भी स्त्रियों से सदा सतर्क रहना पड़े । न पति को पत्नीका विश्वास रहे, न पत्नी का पतिका । इन सब कष्टों से बचने के लिये शील ब्रह्मवर्य (दार सन्तोष, स्वाति सन्तोष) की अत्यावश्यकता है । स्वदार को छोड़कर अन्य स्त्रियों में माँ, बहिन और पुत्री की भावना और स्वपतिको छोड़कर अन्य पुरुषों में पिता भाई और पुत्र की भावना अगर हो तो प्रत्येक और पुरुष निर्भयताका अनुभव करे। जिस समाज के लोगों में ये पवित्र भावनाएँ नहीं होती और वासनाओं का वेग तीव्र होता है अर्थात् लोग नीतिभ्रष्ट और क्रूर होते हैं, वहीं खियाँको चार
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy