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________________ २२ ] .: चौथा अध्याय ...। उनकी अस्थाओं के विषय में नहीं । अवस्थाएँ या पर्यायें तो पैदा भी होती हैं और मष्ट भी होती हैं। हां, द्रव्य पैदा नहीं होता गुण पैदा नहीं होता। इस प्रकार आत्मा पैदा न होग ज्ञान पैदा न होगा, किन्तु घटज्ञान पटज्ञान रूप जो ज्ञानकी पर्यायें हैं वे तो पैदा भी होंगी नष्ट भी होंगी । वे अनादि नहीं हैं कि उनका कभी न कभी प्रगट होना सम्भव हो। तीसरी बात यह है कि हमें तो यह सिद्ध करना है कि एक समय में आत्मा अधिक से अधिक कितना जान सकता है ? अनन्त समयों में अगर आत्माने अनन्त पदार्थों को जाना है तो वह एक समय में सब को जान लेगा यह कैसे सिद्ध हो गया । ज्ञान शक्ति की मर्यादा का विचार हमें एक समय की दृष्टि से ही करना है और करना भी चाहिये । एक समय में अनन्त पर्यायों का ज्ञान असिद्ध तो है ही, साथ ही वस्तु के सान्त होने की बाधा से विरुद्ध भी है। प्रश्न-काल की अनन्तता वस्तु को नित्य मानने से जानली जाती है किन्तु क्षेत्र की अनन्तता अनन्तप्रदेशों का ज्ञान हुए बिना कैसे सम्भव है ? जब कि क्षेत्र का भी अनन्त ज्ञान होता है इससे सिद्ध है कि आत्मा में अनन्त को जानने की शक्ति है। - उत्तर-जैसे पहिली पर्याय के नाश होने पर अवश्य ही दूसरी पर्याय आती है इसलिये काल अनन्त है इसी प्रकार एक प्रदेश बीतने पर तुरन्त ही दूसन प्रदेश आता है इसलिये क्षेत्र अनन्त है । क्षेत्र का यह अनन्तत्व धर्म अनुमान से जान सकते हैं।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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