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________________ ३४४] पाचवा अध्याय कर्मप्रवाद-आत्मा के साथ जो एक अनेक प्रकार के कर्म [एक प्रकार के सूक्ष्म शरीर ] लगे हुए हैं जिनसे किये हुए कार्योका अच्छा बुरा फल मिलता है, उनका विवेचन है। प्रत्याख्यान इसमें त्याग करने योग्य कार्यों का ( पापोंका) विवेचन है । यह आचार-शाक है। विद्यानुवाद-इसमें विद्याओं मन्त्रतन्त्रों का वर्णन है। कल्याणवाद--इसमें महर्दिक लोगों की ऋद्धि सिद्धियांका वर्णन है जिससे लोग पुण्य पाप के फल को समझें । शकुन आदि का विवेचन भी इसमें बताया जाता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इस पूर्व का नाम 'अवन्ध्य' है। इस नामके अनुसार इस पूर्व में यह बताया गया है कि संयम आदि शुभकर्म और असंयम आदि अशुभ कर्म निष्फल नहीं जाते अर्थात् ये अवन्थ्य ( अनिष्फल-सफल ) हैं। इस प्रकार नाम और अर्थ भिन्न होने पर भी मतलब में कुछ अन्तर नहीं है । ऋद्धि आदि का वर्णन पुण्यपाप का फल बतलाने के लिये है। . पाणवाद-इसमें अनेक तरह की चिकित्साओं का वर्णन है। प्राणायाम आदि का वर्णन और आलोचना है। क्रियाविशाल-इसमें नृत्यगान, द अलंकार आदि का वर्णन है । पुरुषोंकी बहत्तर और बियों की चौसठ कलाओं का भी वर्णन है । और भी निव्या नैमितिक क्रियाओं का वर्णन है । लोकबिन्दुसार--त्रिलोकबिन्दुसार भी इसका नाम है । इसमें सर्वोत्तम वस्तुओं का विवेचन है । नन्दीसूत्र के टीकाकार कहते हैं
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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