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________________ रतज्ञान के मैद [ ३४३ है । ग्यारह अंगकी जो रचना है वह अल्पबुद्धियों के (१) लिये है । ग्यारह अंगोंमें सरलता से विषयवार विवेचन है । पूर्वगत के चौदह भाग हैं । उनका लक्षणसहित विवेचन यह है । उत्पाद - पदार्थों की उत्पत्ति का वर्णन है । जगत कैसे बना, कौन पदार्थ कबसे है ? आदि बातों का विवेचन इस पूर्वमें है । अग्रायणीय- अत्र अर्थात् परिमाण ( सीमा ) उनका अयन अर्थात् जानना । इसमें द्रव्यादिका परिमाण बताया जाता है । दिगंबर सम्प्रदाय के अनुसार इसमें सातसौ सुनय दुर्णय, पंच अस्तिकाय, छः द्रव्य, सात तत्व, नव पदार्थ का विवेचन है । वीर्यप्रवाद - इसमें संसारी और मुक्त जीवों की तथा जड़ पदार्थों की शक्ति का वर्णन है । अस्तिनास्तिप्रवाद - इसमें सप्तभंगी न्याय अर्थात स्याद्वाद सिद्धान्त का विवेचन है । ज्ञानप्रवाद - - इसमें ज्ञानके भेद-प्रभेद तथा उनके स्वरूप का विवेचन है | सत्यप्रवाद - इसमें सत्यके भेद-प्रभेद तथा उनके स्वरूपका विवेचन है | साथ में असत्य आदि की भी मीमांसा है । आत्मप्रवाद - इसमें आत्माका विवेचन है । आत्मा के विषय में जो विविध मत हैं, उनकी आलोचना है । (१) जइवि य भूयावाए सव्वस्त वओगयस्तओयारो । विज्जूहणा तहाविहु दुम्मेहें पप्प इत्थी ए । ५५१ | विशेषावश्यक । (२) गोम्मटसार जी० टी० ३६५ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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