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________________ १८ ] . चौथा अध्याय अनन्तरूप में अकेवली भी जान सकता है। वस्तु नित्य है उसका अन्त नहीं है, यह तो अनन्तत्व या नित्यत्व नामक एक धर्म का ज्ञान है जो कि थोड़े विचार से हर एक जान सकता है इसके जानने के लिये केवलज्ञान की वह असम्भव परिभाषा क्यों बनाई जाय । प्रश्न-हम लोगों की दृष्टि में वस्तु अनन्त है परन्तु केवली की दृष्टि में नहीं। उत्तर-तो केवली की दृष्टि में वस्तु का नाश दिखेगा जोकि असम्भव है । इस प्रकार तो केवली मिथ्याज्ञानी होजायगे। प्रश्न--अनन्त में अनन्त का प्रतिभास होजाता है और वस्तुको भी सान्त नहीं मानना पड़ता । जैसे कोई लोहे की पटरी अनन्त हो और उसके सामने सीसे की पटरी अनन्त हो तो एक अनन्त में दूसरा अनन्त प्रतिबिम्बित होजायगा । उत्तर--पटरीका प्रतिबिम्बित होनेवाला भाग और सीसेका प्रतिबिम्बित करनेवाला भाग दोनों सान्त हैं । क्षेत्रकी दृष्टि से पटरी को अनन्ल कल्पित किया तो क्षेत्रकी दृष्टि से सांसे को अनन्त कल्पित करना पड़ा । इसी प्रकार ज्ञान भी सान्त है और उस में प्रतिबिम्बित होनेवाला विषय भी सान्त । विषय समय की दृष्टि से अनन्त हुआ कि इस को भी समय की दृष्टि से अनन्त बनना पड़ेगा । इस प्रकार अनन्त प्रत्यक्षोंमें अनन्त विषय-पर्यायप्रतिबिम्बित हुए परन्तु प्रश्न एक प्रत्यक्ष में अनन्त के प्रतिबिम्बित होने का है। यों तो. अनन्त में अनन्त का प्रतिभास साधारण तुच्छज्ञानी को भी होता है । एक नित्य निगोदिया भी भूतकाल के अनन्त
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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