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________________ मतभेद और आलोचना । २८७ है ? मतलब यह है कि तीन प्रकार में से किसी भी प्रकार को धारणा मानो, परन्तु वह ज्ञानका कोई खतन्त्र भेद सिद्ध नहीं होता है । इसलिये अवग्रह, ईहा और अवाय ये तीन भेद मानना ही उचित है । च-बहु बहुविध आदि के विषय में जैनाचार्यों में बहुत मतभेद हैं और ३३६ भेद करने का ढंग भी अनुचित है। पहिले मैं इनके नाम और लक्षणों के भेदों को लेता हूँ । अनिःसृत, निसृत उक्त, अनुक्त के विषय में बहुत मतभेद है। कोई इनकी परिभाषा को बदलता है तो कोई इनके बदले में दूसरे भेद बतलाता है। सब मतभेदों का पता निम्न लिखित तालिकासे मालूम होगा। प्रथममत द्वितीयमत तृतीयमत चतुर्थमत १ अनिःसृत निःसृत अनिश्रित अनिश्रित २ निःसृत अनिःसृत निश्रित निश्रित ३ उक्त उक्त असंदिग्ध ४ अनुक्त . अनुक्त संदिग्ध अनुक्त प्रथम मत के अनुसार इन चारों का अर्थ पहिले लिखा गया है। दूसरे मतमें अनिःसृत की जगह निःसृत किया गया है परन्तु यह सिर्फ क्रम का परिवर्तन नहीं है किन्तु अर्थ का परिवर्तन (१) (१) अपरेषां क्षिप्रनिःसृत इति पाठः त एवं वर्णयन्ति भोरेन्द्रियेण शब्दमवगृममाणं मयूरस्य वा कुरटस्य वा इति कश्चित्प्रतिपयते अपरः स्वरूपमेवानिःसत इति । सर्वार्थसिद्धि १-१६ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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