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________________ २८६ ] पाँचवाँ अध्याय मालूम होता है कि पीछे के जैन नैयायिकोंने भी संस्कार को एक स्वतन्त्र गुण मानलिया है । रत्नाकरावतारिका (१) में संस्कार का अर्थ आत्मशक्ति विशेष किया गया है। यदि उन्हें संस्कार को ज्ञानरूप मानना मंजूर होता तो वह संस्कार को ज्ञानविशेष कहते, आत्मशक्ति विशेष न कहते । इन सब कारणों से संस्कार को धारणा मानना अनुचित हैं । स्मृति को धारणा मानना भी अनुचित है। क्योंकि, धारणा तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना गया है, यह मैं पहिले कह चुका हूँ । दूसरी बात यह है कि स्मृति को परोक्ष मान करके भी अगर उसे यहाँ शामिल किया जाय तो प्रत्यभिज्ञान तर्क आदि को भी यहाँ शामिल करना पड़ेगा | अगर कहा जाय कि तर्क तो ईहा मतिज्ञान (२) है तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि तर्क के पहिले स्मृति की आवश्यकता होती है, इसलिये स्मृति का स्थान ई६ । के पहिले होगा, जब कि धारणा ईहा के बाद होती है । इस विवेचन से जैन नैयायिकों के मत का भी खण्डन हो जाता है । वे अवायके बाद ज्ञान की दृढ़तम अवस्था को धारणा कहते हैं, जिससे कि संस्कार पैदा होता है, परन्तु जब यह सिद्ध हो चुका है कि संस्कार तो अवग्रह ईहा आदि मतिज्ञान स्रुतज्ञान अवधिज्ञान आदि सभी ज्ञानों का पड़ता है, तब तम अवस्थावाले धारणा ज्ञान को पृथक् मानने अवायके बाद दृढ़ की क्या जरूरत (१) संस्कारस्यात्मशक्तिविशेषस्य । रत्नाकरावतारिका । ३-३ । (२) ईहा ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासेत्यनर्थान्तरम् | तत्त्वार्थ भाष्य । १-१५ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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