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________________ मनोवैज्ञानिक इतिहास [१३ समय त्रिकालत्रिलोक की वस्तुओं का साक्षात्प्रत्यक्ष करते थे इसलिये किसी एक बात की तरफ उपयोग कैसे लगा सकते थे । यही कारण है कि दिगंबरों में गोशाल जमालि आदि का भी उल्लेख नहीं मिलता। प्रारम्भ में तो सिर्फ इतनी ही कल्पना की गई कि अरहंत स्वामी वार्तालाप, शंका समाधान, या शास्त्रार्थ नहीं कर सकते, वे सिर्फ व्याख्यान दे सकते हैं, क्योंकि व्याख्यान देने में किसी दूसरे आदमी के शब्दों पर ध्यान नहीं देना पड़ता । परन्तु इतना सुधार करने पर भी समस्या ज्योंकी त्या खड़ी रही, क्योंकि व्याख्यान में भी किसी खास विषय पर तो ध्यान लगाना ही पड़ता है। युक्तयोगी में यह उपयोगभेद कैसे हो सकता है ? इस आपत्ति के डरसे व्याख्यान देने की बात भी उड़ गई । उसके बदले में अनक्षरी दिव्यधनि का आविष्कार हुआ, जो मेघगर्जना के समान थी । परन्तु इस मेघगर्जना को समझेगा कौन ? तो इसके दो उत्तर दिये गये । पहिला यह कि भगवान के अतिशय से वह सब जीवों को अपनी अपनी भाषा में सुनाई पड़ती है। जबतक कान में नहीं आई तबतक निरक्षरी है और जब कान में पहुँची तब साक्षरी अर्थात सर्वभाषामयी हो गई। दूसरा उत्तर यह कि उस भाषा को गणधरदेव समझते हैं और वे सबको उपदेश देते हैं । इस दूसरे उत्तरने महावीर-चरित्र में एक और विशेष बात पैदा कर दी। श्वेताम्बरों के अनुसार महात्मा महावीरने केवलज्ञान पैदा होने पर प्रथम उपदेश दिया परन्तु वह सफल न हुआ अर्थात् उन्हें एक
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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