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________________ २५० ] पाँचवाँ अध्याय कहा जासकता है कि म. महावीरने मतिज्ञानके प्रचलित भेद नहीं कहे थे। ये भेद प्राचीन होने पर भी म. महावीरके पीछे के हैं । यह बात आगेकी आलोचनासे मालूम होजायगी । यहाँ मैं पहिले वर्तमान की मान्यताओं का उल्लेख करता हूँ, पीछे आलोचना की जायगी। १ मतिज्ञान के दो भेद हैं श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्चितः १: रुतज्ञान से जिसकी बुद्धि संस्कृत हुई है, उसको श्रुतकी आलोचना की अपेक्षा के बिना जो मतिज्ञान पैदा होता है वह तनिश्रित मतिज्ञान कहलाता है । और जो शास्त्रसंस्कार के बिना स्वाभाविक ज्ञान होता है वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान (२) है । २-रुतनिश्रित के चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। ३-इन्द्रिय और मन के निमित्त से दर्शन के बाद जो प्रथम ज्ञान होता है वह अवग्रह (३) है । जैसे, यह मनुष्य है। ४-अवग्रह के बाद विशेष इच्छारूप जो ज्ञान है वह ईहा (१) आमिणिबोहिय नाणं दुविहं पन्नत्तं । तं जहा सुयनिस्सियं असुयनिस्सियं च-नंदी सूत्र । २६ । (२) पुव्वं सुयपरिकम्भिय मइस्स जं संपयं सुयाईयं । तं निस्सिय इयरं पुण आणिास्सयं मइचउकं तं । विशेषावश्यक.१६९ । (३) विषयविषयिसन्निपातानन्तरमायग्रहणमवग्रहः । त. राजवार्तिक १-१५--१ । विषयविषयिसंनिपातानान्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाक्षातमाघमवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुप्रहणमवग्रहः । २-७ प्रमाणनयतत्वालोक |
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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