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________________ २०६ ] पाँचवाँ अध्याय पर भी आत्माका अध्यवसाय होता है इसलिये वह प्रमाण है । प्रश्न-१आत्मोपयोग को यदि आप दर्शन कहोगे तो आत्मा तो एक ही तरह का है इसलिये दर्शन भी एकही तरह का होग। फिर दर्शन के चार भेद क्यों किये ? उत्तर-२ जो स्वरूपसंवेदन जिस ज्ञान का उत्पादक है वह उसी नामसे कहा जाता है । इसलिये चार भेद होने में बाधा नहीं है । दर्शन और ज्ञान की यह परिभाषा श्रीधवलकार की अपनी है या पुरानी, यह कहना जरा कठिन है । परन्तु श्रीधवल के पहिले, किसी जैन ग्रंथ में यह परिभाषा मेरी समझ में नहीं पाई जाती । इसके अतिरिक्त श्रीधवलसे पहिले के अनेक आचार्योंने दर्शन ज्ञानके विषय में जो अनेक तरह की चित्र विचित्र कल्पनाएं की हैं उनसे मालूम होता है कि धवलकार के पहिले हजार वर्ष में होनेवाले जैनाचार्य दर्शन ज्ञान की परिभाषा को अंधेरे में टटोलते थे और वास्तविक परिभाषा को ढूंढने में असफल रहे थे अगर धवलाकार यह सोचते कि "भगवान महावीर सर्वज्ञ थे उन्हीं का उपदेश जैन ग्रंथों में लिखा है, उसका विरोध करके मैं मिथ्यादृष्टि क्यों बनूं ?'' तो वे यह खोज न कर पात । परन्तु उनने मन में यही विचार किया होगा कि "भगवान सर्वज्ञ अर्थात् आन्मज्ञ थे इसलिये यह आवश्यक नहीं कि (१) आत्मविषयोपयोगस्य दर्शनऽगीक्रियमाणे आत्मनो विशेषामा वात् चतुर्णामपि दर्शनानामविशेषःस्यात । (२) इतिचन्नैष दोषः यद्यस्य ज्ञानस्योत्पादकं स्वरूपसवंदन तस्य तद्दर्शनव्यपदेशात् न दर्शनचातुर्वियानियमः ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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