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________________ श्रीधवलका मत [ २०५ प्रश्न- १ यदि ऐसा मानोगे तो ' सामान्य ग्रहण दर्शन' हैं इस प्रकार के शास्त्रवचन से विरोध होगा । उत्तर--२ न होगा, क्योंकि वहाँ यह भी कहा है कि 'भावों का आकार न करके ' । भाव अथात् बाह्य पदार्थ उनका आकार अर्थात् जुदी जुदी कर्म | विषय ] करके जो ग्रहण है वह दर्शन है । इसी अर्थ को दृढ़ लिए कहते हैं 'अर्थों की विशेषता न करके' ग्रहण करना दर्शन है इसलिये 'बाह्यार्थ - गत सामान्यग्रहण दर्शन है' ऐसा न कहना चाहिये । क्योंकि केवल सामान्य अवस्तु है इसलिये वह किसी का कर्म [ विषय ] नहीं हो सकता । और न सामान्य के बिना केवल विशेष का किसी से ग्रहण हो सकता है । I व्यवस्था न करने के प्रश्न- ३ यदि ऐसा माना जायगा तो दर्शन अनंध्यवसाय हो जायगा । इसीलिये वह प्रमाण न होगा । उत्तर -- 12 नहीं; दर्शन में बाह्यार्थ का अध्यवसाय न होने 7 (१) तथाच ' जं सामण्णं गणं तं दंसणं इति वचनेन विरोधः स्यात् ( २ ) इतिचेन्न तदा 'भावाणं णेव कट्टुमायारं' इति वचनात । तद्यथा भावानां बाह्यार्थानामाकारं प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद्मणं तद्दर्शनं । अस्यैवार्थस्य पुनरपि दृढ़ीकरणार्थमाह 'अविसेसदूण अट्टे' इति । अर्थान् अविशेष्य यद्महणं तद्दर्शनं इति न बाह्यार्थगतसामान्यग्रहणं दर्शनं इति आशङ्कनीयं, तस्य अवस्तुनः कर्मत्वाभावान् । न च तदन्तरेण विशेषो प्रायत्वमास्कन्दति इन्यतिप्रसङ्गात् । (३) सत्येवमनभ्यवसायो दर्शनं स्यात् । (४) इतिचेन्न, स्वाध्यवसायस्य अनध्यवसितवाह्मार्थस्य दर्शनत्वाद्दर्शनं प्रमाण मेवे ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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