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________________ वास्तविक अर्थ का समर्थन [१६१ एक स्वर में स्वीकार करते हैं - मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपायेषु ( तत्त्वार्थ) अर्थात् मति और इरुतज्ञान द्रव्यों की सब पर्यायों को ( यहां तक कि अनन्त पर्यायों को भी--सर्वार्थसिद्धि ) विषय नहीं कर सकते । युक्ति भी कहती है कि श्रुतज्ञा एक ही साथ तो सब पर्यायों का ज्ञान कर नहीं सकता है और क्रम से ज्ञान करे तो अनन्तकाल बीत जाय फिर भी ज्ञान न होगा। हमारा आपका अनुभव तो इस बात का साक्षी है ही । इम प्रकार इरुतज्ञान तो निश्चित ही सब पदार्थों को नहीं जानता तब उसके बराबरी का केवलज्ञान सब को कैसे जान सकता है ! ऊपर अष्टसहस्र का जो उद्धरण दिया गया है उससे यह बात बहुत साफ़ मालूम होती है कि जीवादि सात तत्वों के प्रतिपादन करने से श्रुतज्ञान और केवलज्ञान सर्वतत्त्व प्रकाशक है । इसका यही मतलब निकला कि सात तत्त्वों का प्रकाशन ही सर्वज्ञनता है। इससे रत्नत्रय की भी एक विषमता मिद्ध होती है। जीवादि सप्त तत्त्वों का विश्वास सम्यग्दर्शन, इन्हीं सप्ततत्त्वों का ज्ञान सस्यग्ज्ञान, इन्हीं का आचरण-आत्मा में योग्य रीति से उतारना सम्यक् चारित्र । जब साततत्त्वों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और केवलज्ञान सम्यग्ज्ञान का भेद है तब केवलज्ञान भी सप्ततत्त्वों को ही विषय करनेवाला कहलाया । तत्त्व का अर्थ है प्रयोजनभूत पदार्थ सो उन्हीं का ज्ञान सम्यग्यज्ञान या केवलज्ञान है । अप्रयोजनमत अनन्त पदार्थों का ज्ञान व्यर्थ है असम्भव तो वह है ही। ___ इस प्रकार इरुतज्ञान और केवलज्ञान की बराबरी भी सर्वज्ञता के प्रचलितरूप का खण्डन करती है ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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