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________________ १६० ] चौथा अध्याय है | परन्तु जब दोनों बराबर हैं तब दोनों को एक सरीखा मानना चाहिये । जैनाचार्यों ने दोनों ज्ञानों को सर्वतत्त्व - प्रकाशक और समस्त वस्तुद्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानात्मक कहा है । अष्टसहस्त्री में विद्यानन्दी कहते हैं-. "स्याद्वाद और केवलज्ञान जीवादि सात तत्वों के एक सरीखे प्रतिपादक हैं इसलिये दोनों ही सर्वतत्व - प्रकाशक कहे जाते [१] हैं।" . गोम्मटसार टीका में कहा गया है--- इरुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही समस्त वस्तुओं के द्रव्य गुण पर्यायों को जाननेवाले हैं इसलिये समान । ( २ ) इन उद्धरणों से यह बात साफ़ मालूम होती है कि प्राचीन मान्यता तत्वज्ञ को सर्वज्ञ कहने की हैं । जो तत्त्वज्ञ है वह समस्त द्रव्यगुणपर्यायों का ज्ञाता है । इसीलिये श्रुतज्ञान भी समस्त द्रव्यगुणपर्यायज्ञानात्मक कहा गया है । प्रश्न- जब जैनाचार्य श्रुतज्ञान और केवलज्ञान को बराबर मानते हैं तब केवलज्ञान को इरुतज्ञान के समान सान्तविषय क्यों माना जाय ? श्रुतज्ञान को ही केवलज्ञान के समान अनन्त विषय क्यों न माना जाय ? उत्तर - अनन्त द्रव्य पर्यायों का ज्ञान श्रुतज्ञान नहीं हो सकता है इस विषय में हमारा अनुभव, युक्ति और जैनशास्त्र सभी १ • जीवाजीवा श्रवबन्धसंवर निर्जरामोक्षास्तत्त्वमितिवचना' तत्प्रतिपादनाविशेषात् स्याद्वाद केवलज्ञानयोः सर्वतत्त्वप्रकाशनत्वम् । अष्टसहस्री १०५ | २. श्रुतज्ञान केवलज्ञान चेति द्वे ज्ञानं बोधात् समस्त वस्तु द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानान् सदृशे समाने भवतः । गोम्मटसार टीका ३३४
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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