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________________ ११६ । चौथा अध्याय अनुभव वचनयोग होता है [१] सिर्फ अनक्षरात्मक भाषा ही अनुभव वचनयोग का कारण नहीं है, किन्तु निमन्त्रण देना, आज्ञा करना, याचना करना, पूछना, विज्ञप्ति करना, त्याग की प्रतिज्ञा करना, संशयात्मक बोलना, अनुकरण की इच्छा प्रगट करना, ये भी अनुभय वचनयोग के कारण [२] हैं । इस प्रकार केवली के अनक्षरात्मक भाषा शास्त्र विरुद्ध है । तथा युक्ति से भी विरुद्ध है, क्योंकि अनक्षरात्मक वचनों को श्रोताओं के कान में पहुंचने पर अक्षररूप में परिणत करने का कोई कारण नहीं है । बोलते समय ताल्त्रादिस्थानों के भेद से अक्षर में भेद होता है। यदि मुख में अक्षरों का भेद नहीं हो सका तो कान में कौन कर देगा । प्रश्न--देवलोग ऐसा कर देते हैं । उत्तर- अनक्षरात्मक वाणी का कौनसा भाग 'क' बनाया जाय, कौनसा 'ख' बनाया जाय आदि का निर्णय देव कैसे कर सकते हैं ? केवली किस प्रश्न के उत्तर में क्या कहना चाहते हैं, क्या यह बात देव समझलेत हैं ? यदि केवली के ज्ञान को देव समझते हैं तो देव केवली हो जायगे । यदि उत्तर देने के लिये , (१) तीर्थंकरवचनम् अनक्षर वदध्वनिरूपं तत एव तदेक, तदेकत्वान्नतस्यद्वैविध्यं घटते इति चेन्न तत्रस्यादित्यादि असत्यमाषवचनसत्वतः तस्यध्वनेरनक्षत्वासिद्धेः । श्रीववल - सागरकी प्रतिका ५४ वां पत्र ॥ (२) आमंतणि आणवणी याचणियापुच्छणी य पण्णवणी । पञ्चवखाणी संसयवयणी इच्छानुलोमाय । २२५ । णवमी अणक्खरगदा असामोसाहत्रति भासाओ । सोदाराणं जम्हा वत्तावत्तंस संजणया । २२६ | गोम्मटसार जीवकांड ||
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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