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________________ ७४ जैनधर्म-मीमांसा mmnnnnnnnnnnnmmmmmmmmmmmmm सिद्ध करना चाहता है कि म० पार्श्वनाथका धार्मिक साहित्य इतना अविकसित था कि उसमें अहिंसा सत्य आदिका भेद भी अज्ञात था। इससे पार्श्व-धर्म और वीर-धर्मका अन्तर और भी बढ़ जाता है । छेदोपस्थापनाकी व्याख्यामें जो गोम्मटसारका उद्धरण दिया गया है तथा छेदोपस्थापनाका जो व्युत्पत्यर्थ है उससे यही सिद्ध होता है कि संयममें दोष लगनेके बाद उसकी शुद्धि होनेपर संयमका नाम छेदोपस्थापना हो जाता है । इससे म० पार्श्वनाथके समयमें भी छेदोपस्थापनाका अस्तित्व मानना चाहिये । दूसरा आक्षेप यह किया जाता है कि-" जितने भी दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्योंने इस शासनभेदका वर्णन किया है उन्होंने सामायिक और छेदोपस्थापनाके आधारपर ही किया है । केवल एक उत्तराध्ययनकार ही हैं जिन्होंने चार यम और पाँच यमका इसके सम्बन्धमें उल्लेख किया है । इससे यही प्रतीत होता है कि उत्तराध्ययनकारकी यह बात वीर-शासनकी परम्परागत नहीं है।" श्वेताम्बर-सम्प्रदायके शास्त्रोंका विद्यार्थी ऐसा आक्षेप करनेकी भूल नहीं कर सकता। उत्तराध्ययनकारका यह वक्तव्य वास्तवमें परम्परागत है और वह मूल सूत्रों या अंगोंमें भी पाया जाता है । यहाँ मैं स्थानांगका उद्धरण देता हूँ-" भरत और ऐरावत क्षेत्रमें प्रथम और अंतके छोड़कर बीचके बाईस अरहंत चातुर्याम धर्मका निरूपण करते हैं । वह यह-सम्पूर्ण हिंसासे विरक्ति, सम्पूर्ण मिथ्यावादसे विरक्ति, सम्पूर्ण अदत्तादानसे विरक्ति, सम्पूर्ण परिग्रहसे विरक्ति । सब महा १ छेदेन प्रायश्चित्ताचरणेन उपस्थापनं यस्य सः छेदोपस्थापनः इति निरुक्तेः। गो० टीका ४७१।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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