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________________ जैनधर्मकी स्थापना उस बात पर भी विचार करना चाहिये कि किसी धर्ममें क्रमशः दो तीर्थंकर नहीं हो सकते। अगर तीर्थंकर दो होंगे, तो धर्म भी दो हो जायँगे । जो नया तीर्थ बनाता है वही तीर्थंकर कहलाता है, अन्यथा जैन - शास्त्रोंके ही शब्दोंमें तीर्थंकर-बराबर ज्ञानी हो जानेपर भी कोई तीर्थंकर नहीं कहलाता । म० महावीरकी तरह जम्बूस्वामी आदि भी केवली या अर्हत् थे परन्तु वे तीर्थंकर नहीं कहलाये । क्योंकि उन्होंने नयी धर्म-संस्थाका निर्माण नहीं किया था किन्तु म० महावीरद्वारा निर्दिष्ट मार्गका ही अनुकरण किया था । प्रत्येकबुद्ध केवली ऐसे होते हैं कि उन्हें किसी गुरुकी आवश्यकता नहीं होती, फिर भी वे तीर्थंकर नहीं कहलाते, क्योंकि वे किसी धर्म - संस्थाकी स्थापना नहीं करते । जब कोई तीर्थंकर बनता है तो वह नया धर्म बनाता है । इसलिये हम महावीर स्वामीको ही जैन तीर्थंकर कह सकते हैं। उस समय भी और बहुत से तीर्थंकर -म० बुद्ध वगैरहथे और पहले भी बहुतसे म० पार्श्वनाथ वगैरह हो गये थे परन्तु वे जैन तीर्थंकर नहीं थे। जिसको आज हम जैनधर्म कहते हैं वह तो म० महावीर के समय से ही है । इसके पहले और बहुतसे धर्म थे, म० पार्श्वनाथका भी धर्म प्रचलित था, परन्तु वे सब जुदे धर्म थे । म० महावीरने अगर म० पार्श्वनाथको तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था तो इसका यह मतलब नहीं है कि जैनधर्म म० महावीरसे पुराना सिद्ध हो गया । परन्तु इसका सिर्फ इतना मतलब होगा कि म० पार्श्वनाथने भी एक धर्म-संस्था बनाई थी, इसलिये वे तीर्थंकर थे । वह संस्था शिथिल हो गई थी इसलिये उस संस्थाके आश्रित व्यक्ति म० महावीरके झंडे के नीचे आ गये थे । पार्श्व-धर्मका आज कोई साहित्य 1 ५९
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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