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________________ धर्म-मीमांसा और जैनधर्म ५१ सामने रक्खी हो तो हमें निःसंकोच होकर उसे अपना लेना चाहिये। यह समझना कि हम अपने पूर्वजोंसे आगे नहीं बढ़ सकते, भूल है । हम उनके प्रति कृतज्ञता प्रगट करें परन्तु उसके लिये अपने विकासको ही न रोक लें और परिस्थितिके प्रतिकूल बातोंको न अपनाए रहें। प्राचीनताकी बीमारी एक बड़ी भारी बीमारी है इसे दूर ही रक्खें। झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना, आदि पाप किसी भी धर्मसे पुराने हैं परन्तु इसीलिये वे उपादेय नहीं हैं । हमें सत्य और कल्याणकारिताका उपासक होना चाहिये न कि प्राचीनता या नवीनताका । इस प्रकार पूर्ण निष्पक्षताके साथ समभावपूर्वक आगेके पृष्ठोंमें जैनधर्मकी मीमांसा की जाती है जिससे उसका मर्म मालूम हो और उससे वास्तविक और पूरा लाभ उठाया जा सके ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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