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________________ जैनधर्म-मीमांसा Annaara अन्य धर्मोके समान जैनधर्म भी इन तत्त्वोंसे भरा हुआ है । इसके प्रवर्तकोंकी मनोवृत्ति चिरकाल तक वैज्ञानिक रही है। पुरानी कथाओं और विचारोंको सुधार सुधार करके इस धर्मके विद्वान् उन्हें विश्वसनीय बुद्भिग्राह्य और तर्कसंगत बनाते रहे हैं । ___ जैनधर्मका जो स्याद्वाद है वह तो सर्व-धर्म-सम-भावका ही नामान्तर है । स्याद्वादके द्वारा जैनधर्मने सब धर्मोका समन्वय किया है। हाँ, इसका उपयोग विशेषतः दार्शनिक क्षेत्रमें ही हो पाया है , इसलिये जनसाधारणने इससे लाभ नहीं उठा पाया परन्तु इसके प्रवर्तकका लक्ष्य यही था। जाति-पाँतिका भेद तथा नर-नारीके अधिकारोंकी विषमता आदि तो मूल जैनधर्ममें है ही नहीं, यह बात उसके साहित्यसे साफ समझी जा सकती है । इस प्रकार इस धर्ममें सर्व-धर्म समभाव सर्वजाति-समभाव विवेक आदि उपयोगी गुणोंने काफी जगह रोकी है। परन्तु पिछले ढाई हजार वर्षमें इसमें भी विकृति आगई है जोकि उपर्युक्त गुणोंके साथ मेल नहीं खाती तथा इस धर्मके मूल उद्देश्यपर कुठाराघात कर रही है, इसलिये अब उसकी अग्नि-शुद्धि करके सत्य जैनधर्मको प्रकाशमें लानेकी जरूरत है। __ जैन-साहित्यमें ही इतना मसाला है कि अगर कोई मनुष्य निष्पक्ष और गंभीर दृष्टिसे उसका निरीक्षण करे तो वास्तविक बात छुपी न रहेगी तथा उसे जैनधर्मके वर्तमान रूपकी अपेक्षा एक दूसरे ही दिव्य रूपका दर्शन होगा। ___ अगर कोई बात जैन-साहित्यमें न मिले परन्तु आज उसकी जरूरत हो, तथा पिछले ढाई हजार वर्षके प्रयत्नने कुछ नई चीज़ हमारे
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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