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________________ सुखी बननेकी कला rumwwwnamamwrrrrrr.wwwwwww इस तरह वह स्वयं सुखी होता है और पर-कल्याण भी करता है । परिग्रहीकी अपेक्षा सच्चा निष्परिग्रही बहुत सुखी है । (ग) पिछले जमानेमें आजकल सरीखे ज्ञान-प्रचारके साधन नहीं थे इससे, तथा पुस्तकों वगैरहसे उपदेश तो मिलता है परन्तु उसमें सजीवता नहीं होती इससे, उस समय साधु-संस्थाको विशाल बनानेकी आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त उस समय अन्न इतना अधिक था कि विशाल साधु-संस्था भी लोगोंको कोई कष्ट दिये बना निभ सकती थी। फिर इस बातका पूरा खयाल रखा जाता था कि कोई मनुष्य कुटुम्बियोंकी इच्छाके विरुद्ध, उत्तरदायित्व छोड़कर, तो नहीं भाग रहा है। शंका-धर्मका उद्देश्य अगर स्व-पर-कल्याण है, तो वह अनावश्यक कष्टोंको निमन्त्रण देनेका विधान क्यों बताता है ? बहुत दिनोंतक भूखे रहना, ठण्ड गर्मीके कष्ट सहना, आदिसे न तो दूसरोंको सुख मिलता है, न अपनेको सुख मिल सकता है । समाधान-धर्मने ऐसे तपोंको अन्तरंग तप नहीं किन्तु बाह्य तप कहा है । और इन बाह्य तपोंका मूल्य तभी स्वीकार किया है, जब ये प्रसन्नतासे और निराकुलतासे किये जावें । सुख जितना ही स्वाधीन होगा उतना ही पूर्ण होगा। इसलिये पराश्रितताका त्याग करनेके लिये और सहनशक्तिको बढ़ानेके लिये इन तपोंकी आवश्यकता है । हममें सहन-शक्ति जितनी अधिक होगी, दुःखके साथ हम उतना ही अधिक लड़ सकेंगे । यदि सहन-शक्ति आवश्यक है, तो उसका ऊँचासे ऊँचा रिकार्ड किस किस दिशामें कितना हो सकता है, इसका प्रयत्न करना भी आवश्यक है । एक मनुष्य प्रति
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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