SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म-मीमांसा जाती है । हिंसा हो जानेपर भी अगर हमारी भावना हिंसा करनेकी न हो, तो हमें हिंसाका दोष नहीं लगता और भाव होने पर हिंसा न होनेपर भी हिंसाका दोष लगता है। यह बात अहिंसाके विवेचनमें स्पष्ट की जायगी। ___ अधिकांश लोगोंके अधिकतम सुखवाली नाति व्यवहारमें अत्यन्त उपयोगी है, इसलिये हम उसका त्याग नहीं कर सकते । और भावविशुद्धिके विना आत्म-विश्वास नहीं हो सकता, न ठीक ठीक निर्णय ही हो सकता है; इसलिये हम भावको गौण स्थान भी नहीं दे सकते। इस समस्याके सुलझानेके लिये अधिकांश प्राणियोंके अधिकतम सुखवाली नातिमें कुछ संशोधन आवश्यक है, उसके लिये हमें निम्नलिखित सूत्रोंको स्वीकार करना चाहिये (क) अधिकतम लोगोंका अधिकतम सुखमें 'लोग' शब्दका अर्थ प्राणी है । धर्मके सामने त्रिकाल त्रिलोककी समस्याएँ हैं, इस लिये इतना व्यापक अर्थ करना उचित है। (ख) सभी जीवोंका सुख समान नहीं होता। चैतन्यकी मात्रा बढ़नेसे सुखदुःखानुभवकी मात्रा बढ़ती है। द्वींद्रियादि जीवोंमें वनस्पतिकी अपेक्षा कई गुणा चैतन्य है । इनसे अधिक पशु-पक्षियोंमें और इनसे अधिक मनुष्योंमें। इनमें भी परस्पर तारतम्य देखना चाहिये । इस नीतिमें केवल संख्याका विचार नहीं करना है, सुखकी मात्राका भी विचार करना है। (ग) नीतिका निर्णय सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टिसे करना चाहिये । दस चोर एक आदमीको लूट लें, इससे दस चोरोंको सुख
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy