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________________ जगत्कल्याणकी कसौटी ३१ बेथाम, मिल आदि पाश्चिमात्य विद्वानोंने कर्त्तव्याकर्त्तव्यका निर्णय करनेके लिये " अधिकांश लोगोंका अधिकतम सुख" का नियम निश्चित किया है । कर्त्तव्याकर्त्तव्य निर्णयको व्यावहारिक रूप देने में इससे अच्छी युक्ति दिखलाई नहीं देती । भारतवर्ष के प्रत्येक धर्ममें इस नीतिको स्वीकार किया गया है । परन्तु इस नीतिका जो साधारण अर्थ किया जाता है, उसमें कुछ त्रुटि रह जाती है । इस त्रुटिको लोकमान्य तिलकने इन शब्दोंमें रक्खा है- " इस आधिभौतिक नीति-तत्त्वमें जो बहुत बड़ा दोष है वह यही है कि इसमें कर्ताके मनके हेतु या भावका कुछ भी विचार नहीं किया जाता और यदि अन्तस्थ हेतुपर ध्यान दें, तो इस प्रतिज्ञा से विरोध खड़ा हो जाता है कि अधिकांश लोगोंका अधिक सुख ही नीतिमत्ता की कसौटी है । .... केवल बाह्य परिणामोंका विचार करनेके लिये उससे बढ़कर दूसरा तत्त्व कहीं नहीं मिलेगा । परन्तु हमारा यह कथन है कि जब नीतिकी दृष्टिसे किसी बातको न्याय्य अथवा अन्याय्य कहना हो, तब केवल बाह्य परिणामोंको देखनेसे काम नहीं चल सकता ।....पांडवोंकी सात अक्षौहिणियाँ थीं और कौरवोंकी ग्यारह, इसलिये यदि पांडवोंकी हार हुई होती, तो कौरवोंको अधिक सुख हुआ होता । क्या उसी युक्तिवादसे पॉंडवोंका पक्ष अन्याय्य कहा जा सकता है ?....व्यवहारमें सभी लोग यह समझते हैं कि लाखों दुर्जनोको सुख होनेकी अपेक्षा एक ही सज्जनको जिससे सुख हो, वही सच्चा सत्कार्य है । " भावकी प्रधानता सभी धर्मशास्त्रों में बहुत अधिक परिमाण में पाई * “Greatest good of the greatest number”
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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