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________________ जैनधर्म-मीमांसा hiram तो हमें भी उस दयाका परिणाम कीट-पतंगके भवमें मिलेगा। मतलब यह है कि हर एक प्राणीको हर जगह जन्म लेना पड़ता है, इसलिये जितनी अधिक जगहमें सुखका विस्तार किया जाय, सुखी जीवन बितानेके लिये उतना ही अधिक क्षेत्र संसारमें तैयार होता है । इसलिये हमें अपने वर्तमान स्वार्थका ही विचार न करना चाहिये, बल्कि त्रैकालिक स्वार्थका विचार करना चाहिये । मान लो कि एक नगरमें सभी लोगोंकी यह आदत है कि वे खिड़कीमें बैठकर सड़कपर थूका करते हैं। इससे पथिकोंको कष्ट होता है। इसपर खिड़कीमें बैठनेवाले यह सोचें कि इसमें हमारा क्या जाता है, तो यह ठीक नहीं । क्योंकि जो अभी मकानके ऊपर बैठा है वह सदा वहीं न बैठा रहेगा, उसे भी कभी पथिक बनना पड़ेगा । उस समय दूसरेका थूक उसके ऊपर गिरेगा । इस दुःखसे बचनेके लिये सबके ऊपर थूकनेकी आदत छोड़नी पड़ेगी । इसलिये विश्वके समस्त जीवोंके विषयमें हमें इसी प्रकारका व्यवहार करना चाहिये । शक्तिशाली अगर निर्बलोंको सताना छोड़ दें, तो जब शक्तिवाली निर्बल होगा, तब उसको इस नीतिका लाभ मिलेगा । इसलिये शक्तिशालीका परोपकार भी कालान्तरमें अपने स्वार्थके लिये हो जायगा । __ यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि साधारण प्राणियोंका पतन होता है, इसलिए वे परोपकारके झंझटमें पड़ें; परन्तु जो योगी हैं जीवन्मुक्त हैं, वे परोपकार क्यों करें ? इस प्रश्नके उत्तरमें तीन बातें कहना है (१) जीवनन्मुक्त भी एक दिन साधारण व्यक्ति होते हैं।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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