SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर-सुखमें निज-सुख स्वार्थ समझा, समस्त प्राणि - जगत् जिसने परोपकारका क्षेत्र बनाया, वही निष्पाप और सुखी है । २७ यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि मनुष्योंके और पशु-पक्षियोंके उपकारको हम अपना कर्तव्य या स्वार्थ समझें, यह ठीक है; परन्तु कीटपतङ्गोंका विचार क्यों करें ? उनसे हमें क्या लाभ हो सकता है ? हम उनका कितना ही उपकार क्यों न करें, वे उसका बदला हमें कभी नहीं दे सकते। इस प्रश्न के उत्तर में तीन बातें कही जा सकती हैं ( क ) कीटपतङ्गों में मनुष्यों या पशु-पक्षियोंके समान बुद्धि भले ही न हो, फिर भी उनमें इतना ज्ञान होता है कि वे सतानेवालेको सतानेकी चेष्टा करें । बिच्छू वगैरह सतानेसे डंक मारते हैं । विशेष बुद्धि न होनेसे उपकार- अनुपकारके कार्य वे अच्छी तरह न कर सकें, यह दूसरी बात है; परन्तु उनमें भी ये भावनाएँ होती हैं और यथाशक्ति वे इन्हें कार्य रूपमें परिणत करनेकी चेष्टा भी करते हैं, यहाँ तक कि वृक्ष भी संतुष्ट और असंतुष्ट होते हैं । ', ( ख ) अगर हम प्रत्युपकारकी निराशासे उनका खयाल न रक्खें, तो हमारी आत्मा धीरे धीरे इतनी स्वार्थी हो जायगी कि हमारे उपकारका क्षेत्र अत्यन्त संकुचित हो जायगा, और कालान्तरमें यह संकुचितता हमारे स्वार्थकी भी बाधक हो जायगी । ( ग ) आत्मा अमर है, इसलिये अगर आज हम मनुष्य हैं तो सदा मनुष्य ही न बने रहेंगे। कभी हमें कीट-पतंग पशु-पक्षीवृक्ष आदि भी होना पड़ेगा । अगर आज हम प्रत्युपकारकी निराशासे इन्हें सताते हैं, तो जब हमें कीट-पतंग वृक्ष आदि होना पड़ेगा, तो दूसरे लोग भी हमें सतायेंगे। अगर हम इनपर दया रक्खेंगे,
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy