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________________ ३१० · जैनधर्म-मीमांसा विजय करके अपना आदर्श दूसरोंके सामने रखना आदि स्थितिकरणके उपाय हैं। __ प्रथम अध्यायमें परप्राणिकृत दुःखोंका वर्णन किया गया है। सदाचारके नियम उन दुःखोंको दूर करनेके लिये हैं। सम्यक्त्व और चारित्र तो हर-एक प्रकारके दुःखोंको दूर करनेके लिये हैं। परन्तु साधक-अवस्थामें मनुष्य आपत्ति और प्रलोभनोंके कारण यदि इस मार्गसे गिरने लगता है, तो उसे सहारा देना सम्यग्दृष्टिका कार्य है। संसारमें जितने सदाचारी मनुष्य होंगे, सुखकी वृद्धि उतनी ही अधिक होगी। सदाचारी सुखके साधनोंकी लूट नहीं चाहता किन्तु उनका विभाजन करता है । सुखके साधनोंकी लूट मचानेवाला ही दुराचारी या असंयमी है । इन असंयमियोंकी संख्या बढ़ने न पावे, अर्थात् संयमियोंकी संख्या घटने न पावे, सम्यग्दृष्टि इसके लिये उद्योगशील रहता है । यही उसका स्थितिकरण है। ___ जीवनके अनुभव कभी कभी इतने कडुवे होते हैं कि बहुतसे मनुष्य कल्याणमार्गसे लौट आते हैं। एक सदाचारी मनुष्य विश्वप्रेमका पुजारी है; वह अन्याय और अत्याचारसे दूर रहता है फिर भी लोग उसपर अत्याचार करते हैं अथवा उसे जीवनकी आवश्यक सामग्री भी नहीं मिलती अथवा अनेक स्वार्थी असंयमी लोग आदर, सत्कार, यश आदिमें आगे बढ़ जाते हैं । यह देखकर उसका हृदय चलविचल होने लगता है । उस समय उसका स्थितिकरण करना चाहिये। उसकी दुरवस्थाका क्या कारण है, सच्चा सुख क्या है आदि बातें उसे समझाना चाहिये; अपना आदर्श उसके सामने रखना चाहिये। साधारण मनुष्य चर्म चक्षुओंसे : ही जगतको देखा करता है।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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