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________________ सम्यग्दर्शनके चिह्न २५९ nanamna स्वार्थ किस प्रकार मिले हुए हैं यह बात प्रथम अध्यायमें कही जा चुकी है । जब समष्टिकी वास्तविक उन्नति होती है तब व्यक्तिको भी उन्नति होती है । इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव व्यक्तिकी उन्नतिके लिये समष्टिको उन्नतिका कार्य करता है, इसीको वह अपना कर्तव्य समझता है । इसके अतिरिक्त वह सहन-शक्तिको भी बढ़ाता है जिससे वह कष्टोंसे लड़ सके । जिसमें ये दोनों बातें होती हैं. उसको कर्तव्यकार्य करनेमें कोई भी ऐहिक भय बाधा नहीं डालता । विपत्तियाँ तो हरएक व्यक्तिपर आती हैं । जो उनसे डर जाता है वह पराजित कहलाता है । जो नहीं डरता वह विजयी कहलाता है। सम्यग्दृष्टि विजयी है, जिन है, इसलिये उसमें इहलोक-भय नहीं होता। ___ इहलोक-भयके कारण अनेक हैं, परन्तु उनको हम दो भागोंमें बाँट सकते हैं । इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोग । किसी प्रिय वस्तुका वियोग हो जाना इष्ट-वियोग है । प्रिय वस्तुके भी दो भेद किये जा सकते हैं-एक सहयोगी, दूसरा भोग्य । माता, पिता, पति, पत्नी, पुत्र, भाई, बहिन, मित्र आदि सहयोगी हैं । धन-सम्पति आदि इन्द्रियविषय-रूप-सामग्री भोग्य है। सम्यग्दृष्टिको सहयोगियोंकी भीतरी चिन्ता नहीं रहती। वह अपने उत्तरदायित्वको पूरा करता है, अपने सहयोगियोंके साथ जिस प्रेमभावका व्यवहार करना चाहिये उसका व्यवहार भी करता है फिर भी-जैसा कि पहले कहा जा चुका है-उसका कुटुम्ब सारा जगत् रहता है । इसलिये अगर कभी उसे इष्ट-वियोग सहना पड़े तो उससे वह डरता नहीं है। इसलिये इष्ट-वियोग कर्तव्य-पथमें उसे बाधक नहीं होता। भोग्य सामग्री-रूप इष्टके वियोगका तो उसे भय और भी कम होता है।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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