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________________ सम्यग्दर्शनका स्वरूप २३३ www.mraand rrrrrrramanrnmmmmmunrimmawr आदि होंगे । रसका, गन्धका, स्पर्शका, रूपका, आकारका रूपान्तर ज्ञान नहीं हो सकता । इसलिये मानना चाहिये कि चैतन्य या ज्ञान एक नया गुण है-वह किसी अन्य (रूपादि) गुणका रूपान्तर नहीं है, इसलिये वह पैदा नहीं हो सकता, नष्ट नहीं हो सकता क्योंकि शक्तिका उत्पाद और विनाश नहीं होता। प्रश्न-जब हमारे शरीरको किसी एक चीज़की ठोकर लगती है तब त्वचाके पासके स्नायुओंमें कम्पन होता है शरीरके हरएक भागके स्नायुओंका सम्बन्ध मस्तिष्कके साथ है। इसलिये त्वचाके पासके प्रत्येक कम्पनका प्रभाव मस्तिष्कपर पड़ता है जिससे हमें वेदन होता है । मस्तिष्कके ऊपर पड़नेवाला यह प्रभाव ही चैतन्य है । इसलिये यह अलग गुण नहीं माना जा सकता। उत्तर--स्नायुओंकी प्रक्रिया ठीक है परन्तु इससे चैतन्यका पृथक् अस्तित्व नष्ट नहीं होता । स्नायुओंसे मस्तिष्कमें कम्पन हो सकता है, उसके आकारमें सूक्ष्म परिवर्तन हो सकता है, परन्तु आकारका सूक्ष्म परिवर्तन या कम्पन चैतन्य नहीं है । यदि कम्पनका नाम चैतन्य हो तब तो सभी पदार्थ चैतन्यशाली कहलायँगे । कम्पनसे चैतन्य हुआ यह एक बात है और कम्पन चैतन्य है यह दूसरी बात है। स्नायुओंकी प्रक्रियासे-कम्पनसे–चैतन्य पैदा हुआ कहा जा सकता है किन्तु कम्पनको हम चैतन्य नहीं कह सकते । कम्पन और चैतन्यमें कार्यकारणभाव कहा जा सकता है परन्तु वे दोनों अभिन्न नहीं कहे जा सकते। प्रश्न – कार्य और कारणमें बिलकुल अभेद भले ही न माना जाय किन्तु कारणका रूपान्तर ही कार्य होता है इसलिये चैतन्य आदि कार्यको कम्पन आदि कारणोंका ही रूपान्तर कहना चाहिये ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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