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________________ २१८ जैनधर्म-मीमासा ~~rnmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrnwwwwwwwwwwwwwwwwwmama ___ उत्तर-श्रद्धाके लिये विवेककी आवश्यकता तो इसलिये है कि विवेकके विना श्रद्धा पैदा हो नहीं सकती। अथवा विवेकके विना जो कुछ पैदा होता है उसे श्रद्धा नहीं कहते । इस तरह श्रद्धा विवेककी पुत्री ठहरती है । पुत्री होनेके लिये पिता अनिवार्य है । अथवा हम विवेक और श्रद्धाको एक ही वस्तुके दो अवयव कह सकते हैं । पूर्वार्ध विवेक है और उत्तरार्ध श्रद्धा । अथवा मार्गको विवेक कह सकते हैं और प्राप्य स्थलको श्रद्धा कह सकते हैं। सच पूछा जाय तो श्रद्धाके लिये ही विवेककी आवश्यकता है। जिस प्रकार दूकानमें सम्पत्तिका उपार्जन किया जाता है किन्तु उसका रक्षण तथा भोग घरमें किया जाता है, उसी प्रकार विवेकके द्वारा हम वस्तुका निर्णय करते हैं परन्तु उस निर्णयके अनुसार बननेके लिये श्रद्धाकी आवश्यकता है । अगर हम श्रद्धाको छोड़कर विवेकसे ही काम लेते रहें तो हमारी अवस्था उस व्यापारीके सरीखी हो जायगी जो घरके बाहर रहकर नयी नयी सम्पत्ति तो पैदा करता है किन्तु कमाई हुई सम्पत्तिका भोग और रक्षण बिलकुल नहीं करता। अश्रद्धालु कहलानेवाले वैज्ञानिक लोग भी बड़े श्रद्धालु होते हैं। जिस वस्तुको वे अपने विवेकसे निश्चित कर लेते हैं उसीको आधार बनाकर वे बड़े बड़े नये आविष्कार करते हैं। अगर उन्हें अपने निणीत सिद्धान्तोंपर श्रद्धा न हो तो वे आगे न बढ़ सकें। किसी सद्विचारकी स्थिरता या दृढ़ताका नाम श्रद्धा है। सद्विचारका किसी विज्ञान या विवेकसे विरोध नहीं हो सकता। प्रश्न-जो लोग जैनधर्मके ऊपर विश्वास रखते हैं और उसके
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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