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________________ जैनधर्म-मीमांसा कोई चिरकालिक; परन्तु यह निश्चित है कि अपने अपने देश-कालमें सब धर्मोने मनुष्य- समाजको सुखी बनानेकी और समाजके दुःखमूलक विकारोंको दूर करनेकी चेष्टा की है । अब हिंसा-अहिंसा के प्रश्नको लीजिये । जैनधर्म और बौद्धधर्ममें अहिंसापर बहुत जोर दिया गया है । परन्तु जिन धर्मोने हिंसाका विधान किया है, वे अपने समय में भी इतने ही अनुचित थे जितने आज हैं - यह नहीं कहा जा सकता । जिस समय यहाँ जङ्गलोंकी बहुलता थी, जङ्गली जनवरोंसे कृपिकी रक्षा असम्भव थी, उस समयपर मनुष्य - समाजकी रक्षाके लिये हिंस्र तथा कृषिविघातक जानवरोंका यज्ञ तथा शिकार आदिसे नाश किया गया, यह अक्षन्तव्य नहीं है । यह बात दूसरी है, कि पीछे से इस हिंसाकी आवश्यकता न होनेपर भी लोगोंने नामवरी के लिये या व्यसनके लिये ये कार्य किये । आज हज़ारों वर्ष से यहाँ कृषि कार्य हो रहा है, इसलिये उस समयके कष्टकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते जब लोगोंको कृषि - रक्षाके लिये या आत्म-रक्षा के लिये इस प्रकार हिंसाके विधान करना पड़े । आज यह हिंसा -विधान कई हज़ार वर्षो से अनावश्यक है, इसलिये वर्तमानकालकी दृष्टिसे हमें हक है कि हम उसे अनुचित कहें; और अनुचित और पापमें तो सिर्फ शब्द- मात्रका अन्तर है । इस तरह यह हिंसाविधायक धर्म भी एक समय के लिए आवश्यक था । किन्तु हमारा सबसे बड़ा पाप तो यह है कि एक समयके लिए जो आवश्यक था वह सब समय के लिए आवश्यक मान लेते हैं । जिस समय कृषि - कार्य अच्छी तरहसे चलने लगा, जंगली पशु भी पालतू पशु हो गये, यहाँ तक कि हम उनका दूध तक पीने लगे, इस तरह वे हमारे सहयोगी होकर नागरिक बन गये, उस समय
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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