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________________ जैनधर्म-भीमांसा नहीं मिचती, आहार-नीहार नहीं होता, दाढ़ी-मूछ नहीं होती, रोग नहीं होता, शरीरमें खून नहीं होता, वे आकाशमें चलते हैं । तुम्हारे देवमें ये सब बातें कहाँ हैं ? इसलिये वे तो मनुष्य हैं, तुम उन्हें देव क्यों कहते हो ? साधारण लोग आत्माके महत्त्वको नहीं समझते-वे दिव्य गुणोंमें देवत्वका दर्शन नहीं करते, इसलिये उनके लिये बाह्य देवत्वकी आवश्यकता हुई। इसीलिये तीर्थंकरके अतिशयोंमें देवोंके बाहिरी चिन्ह भी लाये गये हैं। जैनधर्म ऐसे देवत्वकी पर्वाह नहीं करता। उसके अनुसार तो देव वही है जो पूर्ण सत्यज्ञानी है, पूर्ण वीतराग है और पूर्ण हितोपदेशी अर्थात् जगत्कल्याणकर्ता है। श्वेताम्वरोंमें जो पच्चीस योजन तक रोग न होने, मरी न फैलने, अतिवृष्टि-अनावृष्टि न होनेके . अतिशय कहे जाते हैं, वे भी भक्तिकल्प्य हैं और उनका कारण वही है जो ऊपर कहा गया है। समवशरणमें देव-मनुष्य-तिर्यंचोंकी कोड़ाकोड़ी समानेकी जो बात लिखी है उसका मतलब यह है कि तीर्थंकरका सभामंडप इतना विशाल बनाया जाता था कि उसमें बैठनेवालोंको कभी स्थानकी कमी न हो । दोनों सम्प्रदायवाले समवशरणका विस्तार एक योजन बताते हैं । एक योजनका परिमाण उस समयमें क्या माना जाता था या उस समय योजन कितने तरहका चलता था यह अभी अनिश्चित है परन्तु इससे स्थानकी विशालता अवश्य मालूम होती है । यही कारण है कि समवशरण नगरमें नहीं बनाया जाता था किन्तु नगरके बाहर किसी बड़े उपवनमें या पर्वतपर बनाया जाता था। __ तीर्थंकरकी वाणी एक योजन तक एक समान फैले और सब लोग अपनी अपनी भाषामें समझें-श्वेताम्बर सम्प्रदायमें यह कर्म
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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