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________________ जैनधर्म-मीमांसा अतिशय मान लिया गया । यह बात पुराने जमानेमें ही हुई हो सो बात नहीं है। आज भी ऐसा होता है। अगर किसी महास्माके दर्शनोंके लिये कभी कोई राजा जाता है तो साधारण लोग यही कहते हैं कि उस महात्माका क्या कहना ? उस की सेवामें बड़े बड़े राजा बने रहते हैं। महावीर जीवनमें अनेक बार जो घटनाएँ हुई वे अगर सदाके लिये अतिशय मानली गई तो इसमें कौन आश्चर्य है ? परन्तु जो लोग ठीक ठीक वस्तुस्थितिको जानना चाहते हैं उन्हें इतनी बात ध्यानमें रखना चाहिये ये घटनाएँ सत्य तो हैं परन्तु कादाचित्क हैं, तथा वे महावीर जीवनके ही अतिशय कहे जासकते हैं, न कि हरएक तीर्थंकरके । तीर्थंकरका जीवनचरित्र किसी मशीनके द्वारा तैयार नहीं किया जाता जो कि सबका एक सरीखा जीवन ढलता जावे । महावीर जीवनमें जो अतिशय पाये जाते थे वे पार्श्वनाथ जीवनमें हो भी सकते और नहीं भी होसकते । इसी तरह म० पार्श्वनाथके अतिशय म० महावीरके जीवनमें होभी सकते और नहीं भी होसकते। सभी तीर्थंकरोंके एकसे अतिशय मानकरके हम तीर्थंकरके जीवनको बनावटी और अविश्वसनीय बना देते हैं। कर्मक्षयजातिशयोंमें उपर्युक्त तीन अतिशय तो समान हैं। बाकी के अतिशयोंपर संक्षिप्त आलोचनाकी जाती है । दिगम्बर सम्प्रदायने दूसरा अतिशय गगन गमन माना है, परन्तु अगर म. महावीर गगन गमन करते हों तो पैरोंके नीचे कमल बिछनेका जो देवकृत अतिशय है वह निरर्थक पड़ जाता है । यह अतिशय कैसे कल्पित हुआ, इसका ठीक ठीक कारण नहीं मालूम होता । अभी तो सिर्फ
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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