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________________ अतिशयादि १४९ प्रायः वह सब विषयको स्पष्ट करनेके लिये और लोगोंके ऊपर प्रभाव डालनेके लिये थी । उसका आशय सत्य था । त्रिपदीके ऊपर द्वादशांग रचना की बात मेरे इस वक्तव्यकी पुष्टि करती है । अतिशयादि I म० महावीर के जीवनको बहुतसे अतिशयोंने ढाँक रक्खा है । कुछ अतिशय ऐसे हैं जो उनकी असाधारणताके सूचक हैं । कुछ ऐसे हैं कि अतिशयोक्तिके कारण उनका रूप बदल गया है । और कुछ ऐसे हैं जो बिलकुल भक्तिकल्प्य हैं । मैं पहिले कह चुका हूँ कि भक्त लोगोंके द्वारा ऐसी कल्पना होना स्वाभाविक है । वर्तमानकालमें भी महात्मा गाँधी विषयमें यदि अनेक अतिशयोंकी कहानियाँ प्रचलित हो सकती हैं तो ढाई हज़ार वर्ष पहिले यदि म० महावीर सरीखे लोकोत्तर व्यक्तिके विषयमें कुछ अतिशयोंकी कल्पना हुई तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है ? इसलिये इन अतिशयोंके नामपर चिढ़ने की ज़रा भा ज़रूरत नहीं है; किन्तु निःपक्ष होकर उसकी मीमांसा करने की ज़रूरत है जिससे हम उनके वास्तविक महत्त्वको समझ सकें । इस समय भक्तिकल्प्य अतिशयोंको साथमें लगाये रहने से वास्तविक अतिशय भी उसी श्रेणी में चले जाते हैं और सभी भक्तिकल्प्य कहलाने लगते हैं। इसलिये आवश्यकता है कि इनका विश्लेषण कर दिया जाय और वास्तविक अतिशयोंको एक तरफ करके बाकीको अलग कर दिया जाय । ऐसा करके हम म० महावीर के वास्तविक महत्त्वको स्वयं भी समझेंगे और दुनियाँके सामने भी रख सकेंगे । अतिशयोंके विषयमें भी दिगम्बर और श्वेताम्बरोंमें मतभेद है कुछ अतिशय तो ऐसे हैं जिन्हें दोनों सम्प्रदायवाले मानते हैं और
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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