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________________ कैवल्य और धर्मप्रचार १३५ यहाँ सोमिल नामके एक श्रीमन्त ब्राह्मणने बड़े भारी यज्ञका आयोजन किया था जिसमें देशके सैकड़ों बड़े बड़े विद्वान् अपने अपने शिष्यपरिवार सहित आये थे । वह ज़माना यज्ञोंका था । यज्ञके नामपर लाखों पशु स्वाहा कर दिये जाते थे । इस समय क्रियाकाण्डके आगे ज्ञानकाण्डका कुछ मूल्य नहीं था । क्रियाकाण्डियोंकी सब जगह तूती बोलती थी । परन्तु इस ज्ञानशून्य क्रियाकाण्डकी निःसत्त्वता कुछ विद्वानोंके हृदय में खटकती भी थी। उन्हें क्रियाकाण्डमें विश्वास नहीं रहा था इसलिये उनके मनमें अनेक संशयोंने घर कर लिया था । इन संशयी विद्वानोंमेंसे ग्यारह विद्वान् म० महावीरके शिष्य हुए । / जब म ० महावीर अपापा नगरी में पहुँचे तब भी उनके पास बहुत भीड़ हुई | नगरीके बहुत से लोग उनके पास पहुँचे । इन्द्रभूति गौतमने यह देखकर पूछताछ की.' लोग हमारे पास न आकर महावीरके पास क्यों जाते हैं ? ' इस विचारसे कुछ तो उन्हें रंज हुआ और, शुष्क यज्ञकाण्डोंसे उनका मन भीतर भीतर ही घबरा रहा था इसलिए, कुछ जिज्ञासा भी हुई । सोचा, देखूँ तो क्या मामला है ? इन्द्रभूति वहाँ पहुँचे । म० महावीरने शब्दोंसे उनका स्वागत किया। दोनोंमें बातचीत होने लगी । बातचीतमें म० महावीर सरीखे चतुर पुरुषसे यह बात छुपी न रह सकी कि इन्द्रभूतिको आत्मामें ही विश्वास नहीं है । बात यह है कि शुष्क क्रियाकाण्डोंसे उनकी निःसारता तो मालूम होती ही थी परन्तु जिस परलोकके नामपर यह क्रियाकाण्ड चल रहा था उस परलोकके ऊपर ही अश्रद्धा पैदा हो गई थी । परलोकके नामपर होनेवाले अन्याय, अत्याचार और दम्भोंने नास्तिकवाद के प्रचार में बहुत सहायता की है ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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