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________________ १२६ जैनधर्म-मीमांसा rammarrrrrr ताके शीघ्र ही कोप-भाजन हो जाते थे। उनका विरोध उचित होता था तो भी अवसरके कारण निष्फल या दुष्फल हो जाता था। जब कि म० महावीरमें वाक्-संयम बहुत था । वे बहुत कम बोलते थे और लोगोंके कार्यमें बहुत कम हस्तक्षेप करते थे । अप्रिय घटनाओंको सहन करनेकी उनमें बहुत बड़ी क्षमता थी। ___ आये हुए कष्टोंको शान्ततासे सहन करनेमें म० महावीर अद्वितीय थे । मैं प्रथम अध्यायमें कह चुका हूँ कि दुःखोंको विजय करनेके लिये उनको सहनेकी आवश्यकता है । म० महावीर इस सिद्धान्तकी चरम सीमापर पहुँचे थे । यहाँ यह बात ध्यानमें रखना चाहिये कि दुःख भोगनेसे दुःख सहना बिलकुल जुदी बात है । दुःख भोगनेवाले दुःखसे घबराते हैं इसलिये वे दुःखपर विजय प्राप्त नहीं कर सकते । म० महावीर तो दुःखोंको आनन्दसे सहते थे और यह अनुभव करते थे कि जितना कष्ट सहा जायगा आत्मा उतना ही हलका होगा और सुख उतना ही अटल होगा। कहा जा सकता है कि इससे दुनियाँका क्या भला है। परन्तु अगर जरा विचार किया जाय तो ऐसी घटनाओंकी उपयोगिता मालूम होने लगेगी । अधिकसे अधिक कष्ट सहनेसे दुःखका प्रभाव नष्ट हो जाता है तथा दूसरे लोगोंको विपत्तिके समयमें बहुत मनोबल मिलता है । यही कारण है कि म० कभी कभी अनावश्यक कष्ट भी सहते थे। ___एक बार म० महावीर मार्गके किनारे कायोत्सर्गसे खड़े थे। वहाँपर 'एक व्यापारी ठहरा । रात्रिमें ठंडसे बचनेके लिये उसने अग्नि जलाई परन्तु जाते समय बुझाई नहीं। अग्नि जलते जलते म० महावीरके पास
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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