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________________ बारह वर्षका तप १२१ ग्वाल-बालकोंने कहा कि यह मार्ग है तो सीधा परन्तु आगे तापसाश्रमके पास एक सर्प रहता है, उसके डरसे कोई इस मार्गसे नहीं जाता इसलिये आप भी इस मार्गसे न जाओ । परन्तु म० महावीरको ऐसे ऐसे उपद्रवोंको जीतनेमें मज़ा आता था । मृत्युका भय तो उन्हें छू भी नहीं गया था। उनके खयालसे जो ऐसे उपसर्गोसे डरता है, मृत्यु जिसके लिये खेल नहीं है वह दुनियाको अभय कैसे बना सकता है । इसके अतिरिक्त वे यह भी मानते थे कि प्रत्येक मनुष्य ही नहीं किन्तु प्रत्येक प्राणीके अन्तस्तलमें शुभ-वृत्ति छुपी रहती है । अशुभ-वृत्तियाँ जब निष्फल हो जाती हैं तब वे शुभवृत्तियाँ प्रकट हो जाती हैं । क्रूर प्राणियोंके लिये भी यही नियम है । अगर अपना हृदय पवित्र हो, निर्भय हो, तो ऐसे क्रूर प्राणी भी शान्त हो जाते हैं । इसलिये उन्होंने सर्पका उद्धार करना भी अपना कर्त्तव्य समझा। इस सर्पको लोग चण्डकौशिक कहते थे । इसका कारण यह है कि इसी वनमें जो तापसाश्रम था उसके अधिपतिका नाम चण्डकोशिक था । कह अत्यन्त क्रूर और लोभी था । उसके बागका कोई पत्ता भी तोड़ता तो वह उसे मारनेको तैयार हो जाता था। इसी प्रकार मारनेके प्रयत्नमें वह एक दिन गड्ढ़ेमें गिर पड़ा और चोट खाकर मर गया । उसकी मृत्युके कई दिन बाद उसी वनमें यह भयङ्कर सर्प प्रकट हुआ, इसलिये लोगोंने यही मान लिया कि चण्डकौशिक तापस ही मरकर यह सर्प हुआ है और तबसे सर्पका नाम भी चण्डकौशिक विख्यात हो गया। म० महावीर उसी वनमें एक जगह ध्यानस्थ हो गये । घूमता
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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