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________________ १८ होकर प्रतिज्ञा करते हैं-हे महावीरजी ! इस विपत्ति से छुटकारा मिल जान पर मैं आपके दर्शन करने आउंगा और तब तक के लिये मेरे चांवल म्बान के त्याग हैं श्रादि-अथवा उससे छुटकारा पाने के लिये मंडल मंडवाते हैं या समऋपि आदि की पूजाऐं करवाते हैं। मतलब यह है कि हमारी जैन समाज के धार्मिक विचार आमतौर सं हिन्दुओं के से हारहे हैं और यदि आप इसकी जांच करें तो जहां तक हमाग विचार है लगभग सवही जगह जैन समाज की एसी ही हालत आपकी हष्टि में आवंगी। इस पूजा के ढंगन और तो क्या, समाज के अच्छे विद्वानों और कीलकीरवांचन सतया उसी प्रकार और देवी देवताओं की भभूत वगै लगाने से हम लोगों के दुःखों की जो निवृति होती है उसमें उन प्रतिमाजी नथा उन देवी देवताओं की शक्ति का प्रभाव नहीं होता किन्तु उसका कारण स्वयं हमारी Will Puner: संकल्प शक्ति ही है। जो लोग अपन भिन्न २ इप्रदेव के प्रभाव स एसा हानामानने वभूल करतहैं और वे उस कस्तुरी मृग के सदृश हैं जो यह न जान कर, कि जिस अमूल्य वस्तु की खोज में मैं हूं वह मेरे ही अन्दर मौजूद है. रात दिन उसीकी तलाश में व्यर्थ ही माराफिरता रहता है। वास्तव में आपके अन्दर ही आपकी श्रान्मा की अनंत शक्ति छिपी पड़ी है जिस पर यदि आपकी पूर्ण श्रद्धा हो तो आप संसार को अनेक विचित्र सभी विचित्र कार्य करके दिखा सकते हैं।
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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