SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७ कथन अनुचित नहीं हैं कि किसी भी धर्म के अनुयायियों में, उसके तत्वों को समझ कर उस धर्म को मानने वाले, बहुत अल्प संख्या में होते हैं। ऐसे मनुष्यों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे उसकी प्रत्येक क्रिया को समझ २ कर ही करेंगे । अतः धर्म की प्रत्येक क्रिया का रूप ऐसा होना चाहिये कि उसका असली आशय साफ तौर से प्रकट होता रहे और अल्प बुद्धि वाले उसका और मतलव न समझलें । इस दृष्टि से प्रचलित द्रव्य पूजा के ढंग पर विचार करने से मालूम होगा कि इससे वर्तमान जैन समाज में धर्म के नाम पर मिध्यात्व की वृद्धि बहुत होगई हैं। लोग अरहंतों को हिन्दुओं के मे करता हरता ईश्वर समझ कर इस विश्वास को लिए रहते हैं कि उनकी भक्तिपूर्वक सेवापूजा आदि करने पर और पूजा के लिये चांवल आदि द्रव्य भेज देने पर वे हमें सुख देने और संसार के दुःखों से पीछा छुड़ा देते हैं । इसीकारण उनका प्रत्येक कार्य इसी भाव को लिये हुये होता है। जहां ज्वर आदि रोगों से पीड़ित हुए fter मंदिरजी' दौड़ जाते हैं और उनकी निवृत्ति के लिये 'भगवान की 'प्रज्ञा' के नाने की लकीर लाकर बांधते हैं और से छुटकारा पाजाने पर उसे 'भगवान' का श्रतिशय समझते हैं । * यदि उन्हें किसीप्रकार की विपत्ति आघेरती है तो भयभीत *निमाज का मंदोदक लगाने से उनकी प्रज्ञाल के नाम ,
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy