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________________ ४१ वारी स चितवन किया जाता है तथा प्रत्यक भावना के चितवन के समय उसके सिवाय कोई भी दूसरा विचार मन में नहीं आने दिया जाता इसलिये एकाग्रता का भी अभ्यास होता है। जब मन एक भावना के चितवन का छोड़ता है तो वैसे ही अपनी मर्जी के मुनाविक इधर उधर नहीं चला जाता प्रत्युत उसे. पहिलं से निश्चित किये हुये क्रम के अनुसार आने वाली, उमक पछि की भावना पर ही जाना पड़ता है। हमारे इस विवेचन से आप ममझ गये होंगे कि प्रचलित दत्र्यपूजा में जो कुछ महत्व है वह निश्चित क्रमवाली उन आठ प्रकार की भावनाओं में ही है जो उन द्रव्यों को चढ़ाने समय की जाती हैं। द्रव्य म उसमें किसी भी प्रकार की विशेपता नहीं पाती क्योंकि वह तोएक अनावश्यक वस्तु और हमारे हिन्दू भाइयों के अनुकरण में सीखा हुआ एक आडम्बर है जिसकी सहायता के बिना ही, एक निश्चिन क्रमवाली, भावनाओं के द्वाग हम अपने ध्येय के चितवन में एकाग्रता संपादन करने का प्रयास कर सकते हैं । यदि इस प्रचालित अट अलगपूजा में मेन पाठ:प्रकार की भावनाओं के चितवनका निकाल दें ना ये क्रम २ मे नहाय जाने वाले जलचंदनादि दव्य किर्मा भी तरह Variation of thoughts के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर सकते और यदि जन्म जगमगाह नाश के लिये जल चढ़ाना ( जम्ग जग मन्य
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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