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________________ कर्म की, एकएक को लेकर संकल्प कीजिये कि उनके परमाणु आपके शरीर से निकल २ कर जारहे हैं और उनके क्षय होने के साथ ही ज्ञान, दर्शन आदि गुण क्रमशः प्रकट होते जारहे हैं (यह ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि जिसे विचार का आप चितवन कर रहे हैं उसके अलावा कोई भी दूसरा विचार मन में न आने पावे और यदि आजाये तो उसी ममय उसे निकाल देना चाहिये )। फिर देखिए ! आप की इस * संसार में काई भी ऐसा कार्य नहीं है जो अटल विश्वास और दृढ़ संकल्प के द्वारा पूरा न होसके। विश्वास के बल से मानसिक शक्तियां एकत्रित होकर संकल्प की दृढ़ता से काम को पूरा करने की तरफ लग जाती हैं। श्रद्धाहीन (संशयी) पुरुष सदैव शंकावादी बनारहता है। वह कहता है कि मैं अशक हूं, दीन हूं, डरपोक हूं, अब मैं क्या करू, मैं बीमार हूं, मुझ किसी का रोग तो नहीं लग जायगा मेरा काम होगा या नहीं, मेरी पाचनशक्ति ठीक नहीं है. मरे दिन अव खराब प्रागंय हैं, मेरी ग्रहदशा अब ठीक नहीं है श्रादि । वह इस प्रकार चिंता भय और शंका के विचारों को मनन करता रहन से तथा दुःख दरिद्रता और घातक विचारों के ही विचार में पड़ा रहन से, सदैव दुखी ही बना रहता है। भय से मनुष्य की मृत्यु तक होजाता है There is nothing but fear to fearअर्थात् मय ही एक ऐसी वस्तु है जिसस मनुष्य का डरते रहना चाहिये। इसी लिये जैनधर्म ने शंका और भय को सम्यग्दर्शन का प्रतीचार
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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