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________________ नौर पर हिन्दुओं का सा आचरण करते रहवें अपने धर्म की रक्षा के लिये, वे इसके सिवाय और कर ही क्या मकते थे। उस समय के जैनाचार्यों ने, जब जैनियों को मजबूर होकर हिन्दू धर्म की क्रियाओं को अपनाते हुये देखा तो उनका जैनत्व न चला जावे इस भय से, उन क्रियाओं के बाहरी रूप में कुछ परिवर्तन करके उनके मूल में जैन धर्म संबंधी कल्पनाऐं डालदीं और उनको जैन शास्त्रों में स्थान देदिया । जैनी ही क्या, लगभग मन ही धर्म बालों को. जत्र भी उन पर ऐसा धर्म संकट आपड़ा है, नत्र २ गंसा ही करना पड़ा है और जैनी भी उस समय दि एमा न करने तो बहुन गंभव था कि अाज भारतवर्ष में जैन धर्म का भी बौद्धधर्म की तरह नाम मात्र ही भवशेष रहपाता। इसका श्रेय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के मर्मज्ञ, उन जैनाचार्यों को है जिन्होंने विचारशीलता से काम लेकर, बिना उसक मूल रूप का विकृत किए, जैन धर्म की रक्षा करनी। इतिहास से यह भी साबित है कि जेनियो की इस घटती के समय में धार्मिक द्वेप बहुत बढ़ गया थ यहाँ तक कि और तो क्या, हजारों जैन मंदिर और मूर्तियाँ तक नष्ट करदी गई इमीकारण उस समय के जैनाचार्यों ने नियों से जैन मन्दिरों के बाहरी भाग में हिन्दुओं में मैकजी की मी मतियाँ
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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